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- भरतेश वैभव आप और कहीं न जाकर मेरे हृदय में ही विराजे रहें"। इस प्रकारकी आत्मभावनाका ही फल है कि भरतेश्वरके हृदयमें बिलकुल आकुलताको स्थान नहीं, अतएव दृःखका लवलेश नहीं। हमेशा प्रत्येक कार्य में वे सुखका ही अनुभव किया करते है। कारण कि आत्मभाबना मनुष्यके हृदयमें अलौकिक निराकुलताका अनुभव कराती है। वह व्यक्ति कभी भी किमी भी हालतमें मार्गच्युत होकर व्यवहार नहीं करता है। उसे संसारकी समस्तवस्तुस्थितिका यथार्थ परिज्ञान है। स्त्रियोंमें, पुत्रोंमें, परिवारमें, वह मिलकर रहनेपर भी वह अपनेको नहीं भलता है, यही कारण है कि उसे इस संसार में एक विचित्र आनन्द आता है । श्री भरतेश्वरने भी इसीका अभ्यास किया है ।
इति कुमारविनोव संधि
खेचरीविवाह संधि सुमतिसागर मंत्रीके साथ विमानारूढ़ होकर बिनमिराज अनेक गाजे-बाजे सहित भरतेश्वरकी सेनाकी ओर आ रहा है । सेनाके पासमें आनेपर स्वर्गके देवताओंके समान विमानसे नीचे उतरा और सेनाकी शोभा देखते हुए महलकी ओर चला। भरतेश्वरको पहिलेसे मालूम था कि विनमिराज आ रहा है। सो इस समाचारके ज्ञात होते ही बुद्धिसागर आदि मन्त्रियोंके साथ अनेक राज्यकारभारके विषयों परामर्श करते हुए दरबारमें विराजमान हुये । विनमिराजको सूचना दी गई कि वह स्वयं पहिले आवे, साथके आये हुये विद्याधर राजा बादमें आवें। उसी प्रकार विनमिराजने सर्व विद्याधर राजाओंको महलसे बाहर ही खड़ा कर दिया और स्वयं दरबारमें गया। भरतचक्रवर्तीके देवनिर्मित दरबारकी शोभा व सौन्दर्यको देखकर बिनमिराज दंग रहा । उस आश्चर्य के मारे बह अपनेको भी भूल गया । भरतचक्रवर्तीके लिये विनय करनेका भी उसे स्मरण नहीं रहा। केवल पासमें आकर एक रत्नको भेंट रखकर नमस्कार किया। इसी प्रकार सुमतिसागर मंत्रीने भी भेट समर्पण कर साष्टांग नमस्कार किया । सम्राट्ने पासमें ही एक आसन दिलाया और उनको बैठनेके लिये इशारा किया। दोनोंने अपने-अपने बासनको अलंकृत किया। "विन मि ! तुम कुशल तो हो न? और घर