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भेरतेश वैभव
२५५ वो यहींपर मुक्काम करना गा । आज अपन लोग जा नहीं सकते। इसलिये तबतक आप लोग इधरके दो म्लेच्छ खंडोंके अधिपतियोंको वगमें कर आवें । पूर्वखंडके लिये तुम जाओ और पश्चिम खंडके लिये अपने भाई विजयांकको भेजो। इधर सेनाकी देखरेख तुम्हारे भाई जयंतांक करता रहेगा। आप लोगोंको जितनी सेनाकी जरूरत हो ले जावें। गंगानदीको सोपानमार्गसे पारकर जाना और सिंधुनदी के सोपानमें अभी अग्नि व्याप्त हो गई है। इसलिये सिंधुनदीको चर्मरत्नकी सहायतासे पार कर आगे जाना चाहिए । इस प्रकार उनको सब उपायों को बतलाकर दोनोंको विदा किया व सम्राट् बहुत आनंदके साथ समय व्यतीत करने लगे। ____ इधर विजयाधं पर्वत में गगनवल्लभपुरके अधिपति नमिराज चक्रवर्तीकी वीरताको सुनकर अत्यंत चिंताक्रांत हुआ। रथनूपुरचक्रवालपुरके अधिपति बिनमिराजको चक्रवर्तीको वीरता व अग्निके वेमको देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई । वह अत्यंत प्रसन्नताके साथ गगनवल्लभपुरमें अपने भाई नमिके पास चला गया । नमिराज चिंताक्रांत होकर मौनसे बैठा हुआ है। कोई गूढ विचार करनेके लिये उसने अपने मंत्रीको बुलाया है। उसीकी प्रतीक्षामें वह बैठा है । वहीं पर विनमिराजने जाकर बहुत प्रसन्नताके साथ भाईको नमस्कार किया व कहने लगा कि भाई ! जिम बचकपाटके बारेमें अपने लोगोंने बड़ी ख्याति सुनी है, उसे एक क्षणमात्रमें भावजी भरतेश्वरने टुकड़ा कर दिया । आकाशमें प्रलयकाल की अग्नि व्याप्त हो गई। जिस बेगसे भावाजीने दण्ड रत्नका कपाटपर प्रहार किया उससे एकदम पर्वत कंपायमान हुआ, जिससे हमारे साथके राजा झुलेके बच्चोंके समान सिंहासनसे नीचे गिर गये । आकाशमें व्याप्त अग्नि मेघपंक्तिको जला रही है । देव भी आकाशमें भ्रमण करनेके लिये असमर्थ हो गये हैं । विजायाध देव ने भरतेशकी भक्तिसे पूजा की है। भरतेशकी बराबरी कौन कर सकते हैं । __विनमिके वचनोंको सुनकर नमिराजको हँसी आई । तिरस्कार युक्त हैंसी हंसकर विनमिको बैठने के लिये कहा । परन्तु उसके चेहरेसे संतोष का चिह्न टपक नहीं रहा था। इतने में नमिराजाका मंत्री भी वहांपर आ गया। विनमिराजको सन्देह उत्पन्न हुआ। कहने लगा कि भाई ! सन्तोषके समय इस प्रकार संक्लेश क्यों ? भावाजी भरतेश्वरको जो विजय हुई है वह हमारी ही तो है। उनकी जो सम्पत्ति है वह अपनी ही समझनी चाहिये । ऐसे समयमें चिन्ता करनेकी क्या जरूरत