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भरतेश वैभव गये थे । इसलिये हम लोगोंसे कहने लगा कि बंधुवर ! पहिलेका बंधुत्व तो अपने साथ है ही। फिर भी आज आप लोग स्वामीके अभ्युदय समानारको लेकर आये हैं। इसलिए आप लोगोंसे अधिक हितैषी हमारे और कौन होंगे? ऐसा कहते हुए हम लोगोंको प्रेमसे आलिंगन दिया व हमारा यथेष्ट सत्कार किया। स्वामिन् ! अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन ? आपके दर्शन करनेकी उत्सुकतासे वह यहाँपर आया है । आपके सामने खड़ा है, इस प्रकार कहकर वे दोनों देव खड़े हो गये ।
इसके बाद प्रभासें हने जारी कर गौशी दुपारी बाट भक्तिसे की । अनेक बस्त्र, आभूषण, रल, मोती आदिको भेंटमें चक्रवर्तीके चरणोंमें समर्पण किया व अपने मन्त्रीके साथ साष्टांग नमस्कार कर चक्रवर्तीकी स्तुति करने लगा। ___"आदितीर्थशाग्रसुकुमार जय जय, आदिचक्रेश मां पाहि, भो देव ! धन्योऽस्मि" ऐसा कहते हुए सम्राटके चरणोंमें नमस्कार किया । चक्रवर्तीने प्रसन्नताके साथ उसे उठनेके लिए कहा । प्रभासेंद्र उठकर खड़ा हुआ 1 पुनः भक्तिसे चक्रवर्तीकी स्तुति करने लगा। निमिषलोचनेंद्र ! कलंकरहितान्यूनचंद्र ! उष्णरहित सूर्य ! सशरीर कामदेव ! तुम राजाके रूप में सबको सुख पहुंचानेके लिये आये हो। स्वामिन् ! अयोध्यानगरी में रहनेपर समुद्र के अनेक व्यंतर उन्मत्त होकर दुर्गिगामी बनेंगे इसलिए हम लोगोंका उद्धार करने के लिये आप यहाँ पधारे हैं, स्वामिन्! आप परमात्माको प्रसन्न कर चुके हैं, इसलिये इसी भवसे मुक्तिको पधारनेवाले हैं । हे मुमुख ! आपकी सेवा करनेका भाग्य लोकमें सबको क्योंकर मिल सकता है ? हम लोग सचमुच में भाग्यशाली हैं। ___ इतनेमें भरतेश्वरने प्रभाससे कहा "सुमुख ! तुम बहुत थक गये होगे अब बैठ जाओ", ऐसा कहते हुए एक आसनके प्रति इशारा किया अपने मंत्रीके साथ बह भी उचित आसन पर बैठ गया।
सुरकीति व ध्रुवगतिको भी बैठने के लिये आज्ञा देकर सम्राट्ने बुद्धिसागरकी ओर देखा । बुद्धिसागर मंत्रो सम्राटके भावोंको समझकर कहने लगा कि स्वामिन् ! प्रभास देव अत्यन्त विवेकी हैं। मायारहित है, आपका परमभक्त है, आपके पादकमलोंकी सेवा करने की इच्छा रखता है, सचमुच में वह धन्य है कि आपकी सेवाके भाग्यको पाया है । इससे अधिक और कौनसी संपत्ति हो सकती है ? इससे पहिले मागधामर व वरतनु पुण्यभागी थे । अब ये तीनों ही पुण्यशाली हैं ।
मंत्रीके वचनको सुनकर वे तीनों देव बहुत प्रसन्न हुए, बुद्धिसागरने