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भरतेश वैभव
रात्रिदिन आनन्दके ऊपर आनन्द देकर संरक्षण आप करते हैं। क्योंकि आप नित्यानन्दमय हैं। इसलिये मेरे हृदयमें निरन्तर बने रहनेकी कृपा करें! इसी भावनासे भरतेश्वरको नित्यानन्द मिल रहा है।
इति प्रभासामरचिन्ह संधि
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विजयादर्शन संधि
प्रभासामर अपनी सेना व विमान आदि वैभवके चिह्नोंको समुद्र तटपर ही छोड़कर चक्रवर्तीके पास बहुत आनन्दके साथ आ रहा है। प्रतिभास नामक प्रतिनिधि व मंत्री उसके साथ हैं। साथ ही सुरकीर्ति व ध्रुवगति भी मौजूद हैं । वह प्रभासामर बहुत सुन्दर है । अनेक रत्ननिर्मित आभरण व दिव्य वस्त्रोंके धारण करनेसे और भी सुन्दर मालूम होता है । गौरवर्ण है । इतना ही नहीं उसका मन भी शुभ्र है । बहुत ही भय भक्तिसे युक्त होकर वन ममाल्के पास जा रहा है। इधर उधरसे चक्रवर्तीकी सेनाके घोड़े, हाथी, रथ व अगणित पायदल आदि विभूतियोंको देखते हुए उसे मनमें आश्चर्य हो रहा है। सभामें प्रवेश करनेके बाद भरतेश्वरका वैभव देखकर प्रभासामर आश्चर्यचकित हुआ। उस विशाल सभामें वेत्रधारीगण "रास्ता छोड़ो, बैठो, हल्ला मत करो" आदि शब्दोच्चारण करते हुए व्यवस्था कर रहे हैं।
प्रभासामरने सिंहासनपर विराजमान चक्रवर्तीको देखा। देखते ही उसके मनमें विचित्र विचार उत्पन्न हुए । क्या यह चक्रवर्ती हैं ? देवेंद्र हैं ? या कामदेव हैं ? चंद्र हैं या सूर्य हैं? इत्यादि अनेक प्रकारके विचार उसके मनमें उत्पन्न हुए। पासमें जाने के बाद ध्रुवगति और सुरतीतिने नमस्कार कर प्रार्थना की कि स्वामिन् ! प्रभासेन्द्र यही है । हम लोगोंने आकर जब यह समाचार कहा कि सम्राट् समुद्रके तटपर बिराजते हैं, तब यह बहुत ही प्रसन्न हुआ। कहने लगा कि मैं आज कृतार्थ हआ, मेरा जन्म सफल हआ । इससे पहिले जिसने मागधामर, वरतनुको पवित्र किया है ऐसे स्वामी मेरे उद्धारके लिए पधारे, मेरा परमभाग्य है इत्यादि अनेक प्रकारसे उन्होंने हर्ष प्रकट किया। इतना ही नहीं, स्वामिन् विशेष क्या? हमलोग आपके समाचार लेकर वहाँ