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भरतेश बंभव
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भरतेश्वरने उन व्यंतरेंद्रोंको इशारा किया कि अब आप लोग उस जल खाईको उस ओर चले जावें और स्वयं दण्डरत्नको वीरताके साथ सम्हालने लगे। उसके बाद सम्राट्ने षट्पद्म गतक्षरोंको देखकर भगवान आदिनाथ के चरणकमलोंका स्मरण किया । तदनंतर अपने निर्मल जिसमें परमात्माका ध्यान किया । अपने बाँधे हाथसे घोड़े लगामको वे लिये हुए हैं, दाहिने हाथसे दण्डको धारण किया है, अब उस वज्रकपाटको तोड़नेके लिये सन्नद्ध हुए । दण्डायुधको हाथमें लेकर उस कपाटपर फोरसे प्रहार किया। पाली ईंटो समान वह दो टुकड़ोंमें विभक्त हुआ, उस समय कांसे पर्वत टूटनेके समान सिद्ध हुआ, वह घोड़ा बिजली के समान बहाँसे दौड़ा । मेघ और वज्रमें अंतर नहीं है । यहाँ तो वज्रदण्डमे वज्रकपाटका संघट्टन हुआ है । मेघके टक्कर में जिसप्रकार भयंकर आवाज होती है इसी प्रकार दोनों वस्त्रोंके संघट्टन में शब्द होने लगा । विशेष क्या ? भरतेश्वरके वज्रप्रहार व उस वयकपाटका विभाग होते समय विजयार्ध पर्वत ही हिलने लगा । भूकंप होने लगा । समुद्र एकदम उमड़कर आने लगा । भरतेश्वरने एक निमिष मात्रमें वज्रद्वारको टुकड़ाकर रख दिया। वह कोई सामान्य नहीं था, फिर भी भरतेश्वरने उसे लीलामात्रसे तोड़ ही दिया । भरतेश्वरकी सेनाको पर्वत पार करने के लिये वह द्वार प्रतिबंधरूप था, इसलिये भरतेश्वरने उसे तोड़ दिया । जब बड़ेसे बड़े वज्रकपाटको इस प्रकार एक ही प्रहारमे तोड़ते हैं तो फिर उनके सामने शत्रुगण किस प्रकार टिक सकते हैं ? उनको दो चार मार पड़ने तक क्या वे उसे सहन कर सकेंगे ? कभी नहीं । भरलेश्वरकी वीरता असाधारण है, अजेय है, उसकी बराबरी कोई भी नहीं कर सकते ।
उस गुफासे प्रलयकालकी ही अग्नि निकलकर आई। किसी पानी के द्वारको खोलने पर जिसप्रकार पानी एकदम निकल आता हो उसी प्रकार उस गुफासे अग्नि निकलकर बाहर आई । वज्रकपाट हर्र आवाजके साथ खुला, उस समय अग्नि बस्स, बुर्र आवाज करती हुई प्रज्ज्वलित हुई । घोड़ा सुर्र आवाज करते हुए पलायन कर गया। अग्नि सर्वत्र व्याप्त हो गई, वर्षों से उस विजयार्धं गुफामें आवृत अग्निने बाहर निकलकर प्रचण्डरूपको धारण किया । सर्वत्र हाहाकार मच गया, पर्वत अग्निमय बन गया है, बड़े बड़े वृक्ष भस्म हो गये । विद्याधर लोग इस प्रलयकालको अग्निको देखकर घबराये । विजयार्धदेव भर
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