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भरतेश वैभव गये कि वरतनु सज्जन है। वक्र नहीं है। प्रगटमें प्रसन्न होकर कहने लगे कि वरतनु ! तुम आये सो अच्छा हुआ । अब उठो। इतने में वरतनु उठा व राजाकी ओर देखते हर कहने लगा कि स्नागिन लोकमें सबकी ऑम्वको तृप्त करनेके लिए आपका जन्म हुआ है । आपका रूप, आपका वैभव, आपका शृङ्गार यह सब लोकमें अन्यत्र दुर्लभ है। यह सब आप अपने लिए ही रहने दीजिए। हमें तो केवल आपकी सेवा करनेका भाग्य चाहिए। हम लोग कपके मत्स्यके समान इस समुद्र में रहते हैं। हमारे पापको नाश करनेके लिए दयार्द्र होकर आप पधारे । हम लोग पवित्र हो गये । हमारे प्रति आपने बड़ी कृपा की। मंदहास करते हुए उसे बैठने के लिय भरतेश्वरने इशारा किया व आसन दिलाया । बरतनु भी आज्ञानुसार अपने मंत्रीके साथ निर्दिष्ट आसनपर बैठ गया। मागधामरको भी आमन देकर बैठनेके लिये राजाने इशारा किया । फिर बुद्धिसागरकी ओर देखा । बुद्धिसागर सम्राटके अभिप्रायको समझकर बोला कि स्वामिन् ! यह वरतनु व्यंतर आपके भोगके लिये योग्य सेवक है। वह विनीत है, सज्जन है और आपके चरण कमलके हितको चाहनेवाला है। साथ ही मागधामरने जो यह सेवा बजाई है वह भी बड़ी है । राजन् ! ये दोनों आपकी सेवा अभेद हृदयसे करेंगे । इन दोनोंका संरक्षण अच्छी तरह होना चाहिये । इस प्रकार बुद्धिसागरके चातुर्यपूर्ण वचनको सुनकर वे दोनों कहने लगे कि मंत्री ! सम्राट्को हमारी सेवाकी क्या जरूरत है ? क्या उनके पास सेवकोंकी कमी है ? फिर भी तुमने इस प्रकारके बचनसे हमारा सत्कार किया, उसके लिये धन्यवाद है। फिर बुद्धिसागर कहने लगे कि राजन् ! वरतनुको अपने राज्य में सुखसे रहने के लिये आज्ञा दीजिये, उसे आज जाने दीजिये और आगेके मुक्काभको चाहे आने दीजिये।
भरतेश्वरने वरतनुको अपने पास बुलाया और उसे अनेक प्रकारके वस्त्र, आभरण आदि विदाईमें दिये । साथमें उसके मंत्रीका भी सन्मान विया । वरतनुने भी भरतेशके चरणों में नमस्कार कर सुरकीति नामक एक व्यंतरको उनकी चरणसेवाके लिये सौंपते हुए कहा कि "स्वामिन् ! आज्ञानुसार मैं अपने राज्यको जाकर शीघ्र लौटता हूँ। तबतक आपकी सेवाके लिये मेरे प्रतिनिधि इस सुरकीतिको रखकर जाता है"। फिर वहाँमे अपने मंत्रीके साथ बह चला गया।
वरतनुके जाने के बाद भरतेश्वर भागधामरकी ओर देखकर बोलने लगे कि यह मागधामर अत्यधिक विश्वासपात्र है । कल यहाँपर सेनाने