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भरतेश वैभव
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मुक्काम किया ही था, इतनेमें यह यहाँ से वरतनुको लानेके लिये चला गया । यहाँ आनेके बाद विश्रांति भी नहीं ली, बहुत थक गया होगा ।
भरतेश्वरके इस वचनको सुनकर बुद्धिसागर मंत्री कहने लगा कि राजन् ! यह विवेकी है, आपके सेवाक्रमको अच्छीतरह जानता है । वह आपकी सेवासे पवित्र हुआ । इसी समय मागधामर भी कहने लगा कि स्वामिन्! आपकी सेवा करने का जो सौभाग्य मुझे मिला है यह मचमुत्रमें मेरा पूर्वपुण्य है | आपके पादकी साक्षीपूर्वक में कह सकता हूँ कि मुझे कोई काट नहीं है। मैं चाहता हूँ कि सदा आपकी सेवा करता रहूँ ।
भरतेश्वरने अस्तु ! इघर आओ ! ऐसा बुलाकर उसकी पीठ ठोंकते हुए कहा कि मागध ! तुमसे मैं प्रसन्न हो गया हूँ । आजसे अपनी व्यंतरसेनाके अधिपति तुम्हें बनाता हूँ । आजसे जितने भी व्यंतराधिपति हमारे आधीन होंगे, उनको तुम्हारे दरबारमें दाखिल करेंगे। सबसे पहिला मानसन्मान तुम्हारे लिए दिया जायगा । बादका उनको दिया जायगा । समुद्र में रहनेवाले व्यन्तरोंको जो कुछ भी देनेके लिये तुम कहोगे वही दे दिया जायगा। जहां तुम उस सम्बन्ध में रोकने के लिये कहोंग हम भी रोक देंगे । अर्थात् तुम्हारी सलाह के अनुसार सर्व कार्य करेंगे । मागध ! सचमुच में तुम अभिन्न हृदयसे मेरी सेवा कर रहे हो; ऐसी अवस्थामें भी उस दिन राजाओंके सामने तुम्हारे लिये जो कठोर शब्द बोल दिये थे, परमात्माका शपथ है कि मेरे हृदय में उसके लिए पश्चाताप हो रहा है। इस प्रकार भरतेश्वरके वचनको सुनकर मागधामर कहने लगा कि स्वामिन् ! आपने ऐसे कौनसे कठोर वचन बोले हैं। मैंने ही अपराध किया था। पहले दिन मूर्खतासे आपके प्रति तिरस्कारयुक्त अनेक वचन बोले थे, उसके लिये आपने प्रायश्चित्त दिया था। इसमें क्या दोष हैं ? स्वामित् ? उसका मुझे अब जरा भी दुःख नहीं । आप भी उसे भूल जायें। इस प्रकार कहते हुये मागधामरने भरतेश्वरके चरणोंपर मस्तक रखा। उसी समय अपने कंठसे एक रत्नहारको निकालकर मागधामरको सम्राट्ने दे दिया और सर्वजनसाक्षीसे उसे "व्यंतराग्रणि" इस उपाधि से अलंकृत किया ।
दरबारके सबलोग कहने लगे कि स्वामिन् ! यह बड़ा भारी उपाधि है, उसके लिये यह मागधामर सर्वथा योग्य है | उसने आपकी हृदयसे जो सेवा की है वह आज सार्थक हो गई है ।
उसके बाद सम्राटने मागधामरकी आज्ञा दी कि मागध ! जाबो ! अपने महल में जाकर विश्रांति लो। भागष्ठ भी सम्राट्को नमस्कार