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भरतेश वैभव
कर अपनी महलकी ओर चला गया। बाकीके दरबारियोंको भी उचित रूपसे विदाकर सम्राट् मोतीसे निर्मित सिंहासनसे उठकर अपने महलमें प्रवेश कर गये । वहाँ पर सम्राट्ने अंतःपुरकी स्त्रियोंके साथ व अपनी संतानके साथ भोग व योगलीलासे मुक्त होकर कुछ दिन बहुत आनंदके साथ व्यतीत किया ।
अर्कैकीति अब बढ़ गया है । इसलिये राजकुलके लिये अनुकूल मुहूर्त देखकर यज्ञोपवीत संस्कार कराया। उत्सव की शोभाको देखकर सब लोग जयजयकार करने लगे । तदनंतर अर्कैकीतिके लिये अध्ययनशालाकी व्यवस्था की गई और उसकी आज्ञा दी गई कि अब तुम अपना निवास बोधगृहमें करो और परिश्रमपूर्वक विद्याध्ययन करो । साथ ही अर्ककीति व उसकी दासीके लिये अलग निवासस्थानका भी निर्माण कराया गया | इसके पहिले अंतःपुरकी सर्व स्त्रियाँ अर्ककीर्तिकी सेना कहलाती थीं । अब अर्ककीर्ति विद्यार्थी हुआ है । विद्याध्ययन कर रहा है। इसलिये वह सेना अब आदिराजकी सेना कहलायेगी । इस प्रकार बहुत आनंद व विनोदके साथ भरतेश्वरका समय व्यतीत हो रहा है। पूर्व व दक्षिण समुद्र के अधिपतियोंको वशमें करनेके बाद अब सम्राट् पश्चिमदिशा की ओर जानेका विचार करने लगे ।
हमारे पाठकों को उत्कंठा होती होगी कि भरतेश्वरको स्थान-स्थान पर विजय ही क्यों प्राप्त होती है ? पूर्वसमुद्रमें गये, वहाँले भागधामरको सेवक बना लिया। दक्षिणसमुद्रमें गये, वहाँ वरतन आधीन हुआ। जहाँ भी जावें वहीं विजयी होते हैं । इसका कारण क्या है ? इसका एकमात्र उत्तर यह है कि यह पूर्वसंचित पुण्योदयका प्रभाव है। पूर्वजन्ममें भरतेश्वरने अनेक प्रकारकी शुभक्रियाओं द्वारा अपने आत्माको निर्मल बना लिया था। इस भवमें भी वे रात-दिन इस प्रकार परमात्माको भावना करते हैं ।
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सिद्धात्मन ! आप चलते समय, बोलते समय, सोते समय उठते समय स्मरणपथ में विराजमान रहें तो प्राणियोंका सर्वकल्याण होता है । उनके सर्वकार्य सिद्ध होते हैं । इसलिये स्वामिन्! आप रत्नदर्पणके समान हैं। मुझे सद्बुद्धि दीजियेगा ।
परमात्मन् ! तुममें अचित्य सामर्थ्य मौजूद है । दशों दिशाओं व तीनों लोकों को एकसाथ व्याप्त होने की सामर्थ्यको तुम धारण कर रहे हो । तुम्हारी महिमाको लोकमें बहुत विरले ही जानते हैं । इसलिये है चिदंबरपुरुष ! धीर ! मेरे हृदय में बने रहो ।