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भरतेश वैभव
में जाकर आग हैं। मैं विजयहाँपर पधारें ।
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अच्छा ! अब रहने दीजिये ! मैं अब दिग्विजयके लिये जा रहा हूँ । मुझे मेरे योग्य उपदेश दीजियेगा, जिससे मुझे दिग्विजय में सफ लता मिले।
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भरने की बात सुनकर यशस्वती देवीको जरा हँसी आई और कहने लगी कि बेटा ! तुम्हें मेरे उपदेशकी क्या जरूरत है ? क्या तुम दूसरोंके उपदेशके अनुसार चलनेके योग्य हो ? सारे जगत्को तुम उपदेश देते हो, वह तुम्हारे उपदेशके अनुसार चलती है। ऐसी अव स्यामें तुम्हें उपदेश वगैरह की क्या जरूरत है । जाओ दिग्विजय कर आनन्दसे वापिस आओ बेटा ! माता के उपदेशकी पुत्रको जरूरत है । परन्तु किस पुत्रको ? जो पुत्र दुर्भागंगामी है उसे माताकी शिक्षाकी आवश्यकता है। दूधको लेकर पानीको छोड़नेवाला हंसके ममान जिस पुत्रका आचरण है माता उसे क्या शिक्षा दे ? तुम ही बोलो | बेटा ! मैं समझ गई कि मैंने तुमको जन्म दिया है, इसलिये तुमने मुझसे उपर्युक्त बात पूछी। यह तुम्हारी शालीनता है। बेटा ! क्या कहूँ ! तुम्हारी वृत्तिसे तुम्हारे पिता भी अत्यंत संतुष्ट हैं । मेरा चित्त भी अत्यधिक प्रसन्न हुआ है। इसलिये प्रिय भरत ! तुम मत पूछो। तुम आनन्दसे पृथ्वीको वश कर आओ। तुममें अखंड सामर्थ्य मौजूद है ।
माताके मिष्टवचनोंकी सुनकर भरतेश बहुत प्रसन्न हुए। आनंदके वेगमें ही पूछने लगे कि क्या माता ! आपको विश्वास है कि मुझमें उस प्रकारकी बुद्धि व सामर्थ्य मौजूद है ?
यावतीने तत्क्षण कहा कि हाँ ! हाँ ! विश्वास है । तुम जाओ !
"तब तो कोई हर्ज नहीं" ऐसा कहकर भरतेशने माताका चरणस्पर्श कर बहुत भक्तिसे प्रणाम किया। उसी समय माताने पुत्रको मोतीका तिलक किया। साथ में पुत्रको आलिंगन देकर आशीर्वाद दिया कि बेटा ! मनमें कोई आकुलता नहीं रखना । तुम्हारे हाथी घोड़ोंके पैर में भी कोई काँटा नहीं चुभे । पखंड में राज्य पालन करने वाले राजागण तुम्हारे चरण में मस्तक रखेंगे। कोई संदेहकी बात नहीं है । जाओ ! जल्दी दिग्विजयी होकर आओ। इस प्रकार बहुत प्रेमके साथ पुत्रकी विदाई की ।
माताकी आज्ञा पाकर भरतेश वहाँसे चले। इतने में मातुश्री यशस्वतीके दर्शनके लिए भरतकी रानियां आई ।