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भरतेश वैभव
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भरतेश्वर पीने की अनेक बार न्या: कार । परन्तु उस दिन का योग तो कुछ और ही था। उस दिन योगमें आनन्द, उल्लास, उत्साह व एकाग्र अधिक था । इसलिये भरतेश्वर अपने आप अत्यन्त प्रसन्न हुए। बिशेष क्या ? पर्वयोगसंधिमें जो ध्यानका वर्णन किया है उसी प्रकार भरतेश्वर ध्यानमग्न हो गये और दूर्वार कर्मोंकी उन्होंने सातिशय निर्जरा कर अपूर्व आत्मसुखका अनुभव किया । तीन दिनके ऊपर तीन घटिका और व्यतीत हो गई। परन्तु भूख, प्यास वगैरहको कोई बाधा भरतेश्वरको नहीं हुई। तीन लोक में सार कहलानेवाले आत्मसुखामृतका सेवन करनेपर लौकिक भूख-प्यास क्योंकर लगेगी। तीसरे दिन पारणाके बाद विधांति ली। तदनंतर दुपहरके समय सोनेके रथपर आरूढ़ होकर समुद्र में धीरवीर चक्रवर्तीने प्रयाण किया।
ध्वज, घंटा, कलश, पुष्पमाला इत्यादिसे उस अजितंजय नामक रथका खब श्रृंगार किया गया था। एक गणबद्ध देव उस रथका सारथी है। वह अपने चातुर्यसे भूमिपर जिस प्रकार रथ चलाता हो उसी प्रकार उसे जलपर भी चला रहा है। अनेक तरंग एकके बाद एक आ रहे हैं । उन सबको पार कर वह रथ आगे बढ़ रहा है।
इस प्रकार बारह योजन तक प्रयाण करनेके बाद जहाजके मुक्कामके समान उस रथने भी मुक्काम किया। रथ आगे न बढ़कर जिस ममय ठहर गया उस समय ऐसा मालूम हो रहा था कि शायद समुद्र ने भरतेश्वरसे प्रार्थना की है कि स्वामिन् ! अब आप आगे न बढ़ें। क्योंकि और भी आप आगे बढ़ेंगे तो शत्रुगण डरके मारे भाग जायेंगे । इसलिये आपका यहाँ ठहरना उचित है ।
चक्रवर्तीने वहींपर खड़े होकर अपने धनुष व बाणको तान दिया। जिस प्रकार भरतेश्वर योग करते समय कर्मके स्थानको ठीक पहिचान कर काम करते हैं उसी प्रकार यहाँ भी ठीक शत्रुके स्थानको पहिचान कर वाणका प्रयोग किया। उस बाणगर्जना से आकाशमें, भूमिमें व जल में एक विप्लवसा मच गया। उस बाणको प्रयोग करते समय राजा भरतेशने हुंकार शब्द किया, वाण ने टंकार किया, इन दोनोंफे भीषण शब्दोंसे जगत् में सब जगह त्राहि-त्राहि मच गई। सेना के हाथी, घोडे वगैरह सब डरके मारे इधर-उधर भागने लगे। समुद्र तो अपने तीर को भी पारकर दही के घड़े के समान बाहर फैल गया । इसी प्रकार