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भरतेश वैभव
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पर्वतको आप संहार कर चुके हैं। इसलिये हमें भी उसी प्रकार की सामर्थ्य दीजियेगा | ताकि हम भी कर्मसे कायर नहीं बनें ।
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ऐसी अवस्था में भरतेश्वर सदृश वीरोंको लौकिकशत्रुओं की क्या परवाह है ?
राजविन
10:1
आदिराजोदय संधि
प्रातःकालमें उठकर भरतेश्वर नित्यक्रियासे निवृत्त हुए । स्नान व देवार्चन कर उन्होंने अपना शृङ्गार किया। अब उनको देखनेपर देवेन्द्रके समान मालूम हो रहे हैं । उसी प्रकारके शृङ्गारसे आकर उन्होंने दरबारको अलंकृत किया ।
बहुतसे राजा व राजपुत्र आज दरबारमें एकत्रित हुए हैं। उन लोगोंने सम्राट्को अनेक उत्तम उपहारोंको समर्पणकर नमस्कार किया व अपने-अपने स्थानमें विराजमान हो गये ।
विचारशील मंत्री, प्रभावशाली सेनापति, भरतेश्वर के पास ही बैठे हुए हैं। पीछे की ओरसे गणबद्ध देव हैं 1 पास में ही मित्रगण हैं । कुछ दूर वेश्यायें हैं । सामने वीरयोद्धाओंका समूह है ।
इसी प्रकार कविगण व विद्वान् लोग सामने खड़े होकर अनेक कविताओंका पाठ कर रहे थे। दोनों ओर से चामर डुल रहे हैं। कोई गायक प्रातःकालके रागमें गायन कर रहे हैं । उसे भरतेश्वर चिन लगाकर सुन रहे हैं । कोई तांबूल दे रहे हैं। उसे भी स्वीकार कर रहे हैं । एक दफे सम्राट्की दृष्टि अविपुत्रोंपर पड़ती है तो दूसरी बार राजाओंकी ओर जाती है । दीर्घसेनाको देखते हुए साथमें गायनभी सुनने जा रहे हैं । ललित रागका गायन बहुत अच्छा हुआ । उसमें भी आत्मकलाका वर्णन था। राजन् ! आप कलाको अच्छी तरह जानते हैं । इसलिये आप प्रसन्न होंगे। इस प्रकार अनुकूलनायक ने कहा । स्वामिन्! एक-एक अक्षरको अच्छी तरह भिन्न-भिन्न कर अत्यन्त सुस्वर के साथ गा रहा था, इस प्रकार दक्षिणनायकने कहा । नहीं ! नहीं ! शक्कर और दूध मिलाकर पीनेमें जो आनन्द आता है, वह इस गायन में आया है । इस प्रकार कुटिलनायकने कहा । शठ:- तान,