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भरतेश वैभव
राजविनोद संधि
दूसरे दिन भरतेश्वर, अपने महलमें मंत्री, सेनापति आदि प्रमुख व्यक्तियोंको बुलाकर आगे कार्यको सोचकर बोलने लगे कि मागधामरको वश करनेमें क्या बड़ी बात है । सेनानायक व मंत्री ! तुम सुनो ! उस व्यन्तरको यश करनेके लिये कोई चिन्ता करने को कोई जरूरत नहीं है । परन्तु मुझे इस समुद्रके तटपर एक दफे ध्यान करने की इच्छा हुई है । कल जबसे मैंने इस समुद्रको देखा है तभीसे मेरे हृदयमें ध्यान करनेकी उत्कट भावना बार-बार उठ रही है। ऐसी अवस्थामें उस इच्छाकी पूर्ति करना मेरा धर्म है। ध्यान करनेके लिये जंगल, समुद्रतट, नदीतट, पर्वतप्रदेश आदि उत्तम स्थान हैं, इस प्रकार अध्यात्म शास्त्रों में वर्णित है । वही वचन मुझे स्मरण हो आया है । जबसे अयोध्या नगरसे हम आये है तबसे मनको तृप्त करने लायक कोई ध्यान हमने नहीं किया है। इसलिये समुद्रतटमें रहकर एकदफे ध्यान कर परमात्माका दर्शन कर लेना चाहिये ।
भरतेश्वरके इस वचनको सुनकर बुद्धिसागर मंत्रीने प्रार्थना की कि स्वामिन्! हमारी विनती है कि ध्यान करनेके लिये समुद्रतट उपयुक्त है यह मुझे स्वीकार है । परन्तु पहिले हम जिस कार्यके लिये यहाँ पर आये हैं वह कार्य पहिले करना अपना धर्म है। सबसे पहिले शत्रुको अपने में करें। बादमें आप निराकुल होकर ध्यान करें, इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है ।
मंत्री ! भरतेश्वर बोले, तुम इतना डरते क्यों हो ? क्या भागध मेरे लिये शत्रु है ? सूर्यके लिये उल्लूकी क्या परवाह है ? मैं ध्यान करनेके लिये बैठूं तो वह अपने आप आकर मेरे वशमें होगा । आप लोग तृणको पर्वत बतानेके समान उसकी बढ़वारी कर रहे हैं। क्या गणबद्ध देवसेवकको आज्ञा देकर उसे यहाँ पर बाँधकर मंगाऊँ ? वह भी जाने दो! वाखंड नामक मनुष्यको अग्निवर्धक बाणका संयोगकर उसके नगरमें भेजकर भस्म कराऊँ ? वह भी जाने दो ! मयदेवको आज्ञा देकर पर्वतको गिरवाऊँगा एवं इस समुद्रके बीच में पुल बँधवाकर अपनी सेनाको वहाँ पर भेजूंगा और उस भूतोंके राजाको अपने नौकरों के हाथसे यहाँपर मंगाऊँगा । उसके लिये चक्रकी जरूरत नहीं, धनुष की जरूरत नहीं, मेरे साथ जो राजपुत्र हैं उनको भेजकर उनकी वीरतासे उसे यहां खिंचवा लाऊंगा। मंत्री ! तुम विचार क्यों नहीं
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