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भरतेश वैभव
पूर्वसागरदर्शन संधि
आज एकादशीका दिन है । भरतेश प्रातःकाल अपनी नित्यक्रियाओंसे निवृत्त होकर बाहर आये । माकाल नामक कर आज्ञा दी कि हमारे लौटनेतक अयोध्यानगरी की कार्य तुम्हारा है। इसलिये इस कार्यमें संलग्न रहना । को आमा की गई कि नई
व्यंतरको बुलारक्षा करनेका फिर सेनापति
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आज्ञा होनेकी देरी थी कि प्रस्थानभेरीकी आवाजने आकाश प्रदेशको व्याप लिया। उसी समय सेनाने जो पहिलेसे प्रस्थानभेरीकी प्रतीक्षा कर रही थी, प्रस्थान किया । चक्ररत्न भी सामनेसे प्रकाशमान होते हुए चलने लगा । सम्राट् भरत भी उत्तमरत्नों से निर्मित पालकीपर विराजमान होकर पधार रहे थे । भरतेश्वरके ऊपर श्वेतकमलके समान छत्र व चारों तरफ से राजहंसोंके गमन के समान धीरे-धीरे डुलनेवाले चामर अत्यंत शोभाको दे रहे थे ।
बहुत से गायक लोग समयको जानकर योग्य रागोंमें गाते हुए बाच वगैरह बजा रहे हैं । उनमें परमात्मकलाका वर्णन है । उसे सुनकर सम्राट्का चित्त भी प्रफुल्लित होता है। सम्राट् मन मनमें ही हर्षित होकर उसका अनुमनन कर रहे हैं। भरतेश्वरकी पालकीके चारों ओरसे अनेक वीर वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित अगणित गणबद्ध देव आ रहे हैं ।
केवल सम्राट्के अंगरक्षकों के कार्य में कटिबद्ध दो हजार गणबन्छ वीर हैं। साथमें रानियोंकी पालकियोंके पीछेसे उनकी रक्षाके लिये सात हजार गणबद्ध देव मौजूद हैं। हाथी, घोड़ा, रथ व पदातियोंकी चतुरंग सेना मीलों क्योंकोमांतक फैली हुई है। इसके बीच में अर्ककीर्तिकुमारका सुन्दर झूला आ रहा है।
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भरतेश्वरकी सेना में इस प्रकार व्यवस्था है कि आगेकी सेना भरतेशकी है और पीछेकी सेना ( अंतःपुरसेना ) सव अर्कैकीर्तिकी है । क्योंकि स्त्रिय बच्चों के साथमें आ रही हैं, अर्ककीतिकी सेनाके कुछ पीछे एक करोड़ वीरोंके साथ भरतपादुक नामके दो गोपाल राजा आ रहे हैं, जो अत्यंत बीर हैं। शत्रुओं की बहुत तेजी से दमन करनेवाले हैं ।
पूर्वाह्नकाल के समय पूर्व ( आदि ) तीर्थंकरके पूर्व ( प्रथम ) पुत्र पूर्वयुगके पूर्व ( प्रथम ) चक्रवर्ती पूर्वाभिमुख होकर अपनी अगणित सेनाके साथ जा रहे हैं । उस समयकी शोभा अपूर्व थी । वैभव व सक्षम अपूर्व था । उसका वर्णन कहाँतक करें। इस प्रकार अत्यंत
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