________________
१९४
भरतेश वैभव
आगे जानेपर एक पालतू प्राणी भरतेशको देखकर अत्यधिक भयभीत होकर देख रहीं था । उसे देखकर नागरांकने कहा कि स्वामिन् ! शत्रुवीर आपसे इसी प्रकार भयभीत होंगे, इसकी यह सूचना है।
सामनेसे एक साँड़ धूल उड़ाते हुए आ रहा है । मुँहसे शब्द भी कर रहा है । दक्षिणांकने उसे वीरसुचना कहकर भरतेशको दिखाया।
इस प्रकार मित्रगण अनेक प्रकारके शुभशकुनोंको दिखाते हुए जा रहे हैं। भरतेश भी अन्दर-अन्दरसे ही हँसते हुये एवं बहुत उत्साहके साथ परमात्माका स्मरण करते हुए नगरके मध्यस्थित जिनमन्दिरमें आये।
बाहरके परकोटेके बाहर ही उन्होंने खड़ाऊँ उतार दी। उसके बाद अप्रमादवृत्तिसे पाँच सुवर्णके परकोटोंको पार किया। सबसे पहिले उन्होंने सदगण्डामें ले किस अगमान आदिनाथ स्वामीकी प्रकृतिका वहाँपर दर्शन मिला। भरतेशने उस भद्रमण्डपमें योग्य द्रव्योंकी भेंट चढ़ाकर बहुत भद्रभावसे भगवान के चरणोंमें साष्टांग प्रणति की। तदनन्तर चिद्रूपभावनाको धारण करनेवाले योगियोंको नमोस्तु किया । निरंजन सिद्धभावनाको धारण करनेवाले योगियोंने भी आशीर्वाद दिया कि "सिद्धदिग्विजयकार्योभव, हे भूप ! समृद्धसुखी भव" ।
तदनन्तर भरतेशने सिद्धपूजाकी शेषाको मस्तकपर व मृत्युञ्जय, सिद्धचक्रआदिके होमभस्मको कण्ठमें लगाकर भक्तिको व्यक्त किया।
बुद्धिसागरने प्रार्थना की कि स्वामिन् ! होमकर्म को बहुत विधिपूर्वक निष्पन्न किया गया। मुनियोंको आहारदान नवधा भक्तिपूर्वक दिया गया। महास्वामी श्री आदिनाथ भगवन्तकी पूजा बहुत वैभवके साथ की गयी है। प्रतिपदासे लेकर दशमीतक अद्वितीय उत्साहके साथ आपने जो प्रजा की व कराई है, वह अब इस लोकमें आपकी पूजा करायेगी इसमें कोई संदेह नहीं। स्वामिन् ! धर्मपूर्वक राज्यपालन करनेकी पद्धति, धर्माग भोगक्रम इत्यादि बातोंके ममको तुम्हारे सिवाय और कौन जान सकता है ? अब आप यहाँपर किरीट धारण करें।
मंत्रीकी प्रार्थनाको स्वीकार कर भरतेशने अपने मस्तकपर रत्नमय किरीटको धारण किया। तदनन्तर किरीट भरतेशने “भूयात्पुनदर्शन" यह पद उच्चारण करते हुए जिनेन्द्र भगवंतको नमस्कार किया 1 बादमें मुनियोंके चरणोंमें मस्तक रखकर वहाँसे जयघोषणाके साथ वापिस लौटे।