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भरतेश वैभव
रखा । उसे देखकर मन्त्रीने कहा कि राजत् ! सूर्यको कमल मिल गया यही तुम्हारे लिये एक शुभ शकुन है ।
चक्रवर्ती उस शस्त्रालयसे लौटे। मंत्रीको उन्होंने भेजकर अपने महलमें प्रवेश किया ।
इति नवरात्रि संधि
में
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पत्तनप्रयाण संधि
आज दशमीका दिन है। राजोत्तम भरतेशने शृङ्गारकर योग्य मुहूर्त में दिग्विजयके लिये प्रयाण किया ।
सबसे पहिले भरतेश मातुश्रीके दर्शन के लिये यशस्वतीकी महलको और चले । स्तुति पाठक भरतेशकी उच्च स्वरसे स्तुति कर रहे हैं।
दुरसे आते हुए पुत्रको माता यशस्वती हर्ष भरी आँखोंसे देखने लगीं। जिस प्रकार पूर्ण चन्द्रको देखकर समुद्र उमड़ आता है उसी प्रकार सत्पुत्रको देखकर माता यशस्वती अत्यधिक हर्षित हुईं।
बहुतसी स्त्रियोंके बीच में माणिककी देवताके समान सुशोभित अकलंक चारित्रको धारण करनेवाली माताको सेवामें भेंट रखकर भर तेशने प्रणाम किया । "बेटा ! समुद्रमें पृथ्वीको लीला मात्र से जीतने तुम समर्थ हो जाओ! जिनभक्ति व भोग में तुम देवेंद्र हो जाओ" इस प्रकार माताने पुत्रको आशीर्वाद दिया ।
साथमें माताने यह भी पूछा कि बेटा ! आज क्या तुम्हारा प्रस्थान है ?
भरतेशने उत्तर दिया कि माता ! आलस्य परिहार व विनोदके लिये जरा राज्य विहार कर आनेका विचार कर रहा हूँ। शीघ्र ही लौटकर आपके पुनीत चरणोंका दर्शन करूँगा ।
माताजी ! बाहुवली कल वा परसोंतक यहाँपर आनेवाला है एवं आपको मेरे दिग्विजयसे लौटने तक पोदनपुरमें ले जायेगा । देखिये तो सही मेरे भाई की सज्जनता ? वह विवेकी है। मैं यहाँपर नहीं रहूँ तब अकेली आपको कष्ट होगा इस विचारसे वह आपको ले जा रहा है। वह मेरे छोटे भाई नहीं, बड़े भाई हैं। माता ! मेरी अनुपस्थितिमें आपका यहाँपर रहना उचित नहीं है। इसलिए आप बाहुबली के महल