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भावेश वैभव
योगों में अपनेको लगाकर फिर स्वयं अपने आपमें ठहरना चाहिये ! उसका क्रम कहता हूँ, सुनो !
देवी ! पंचनमस्कार मंत्र जो ३५ अक्षर हैं उनको अपने हृदयमें पांच पंक्तियोंमें लिखकर देखी। वह पाँच मोतीके हारोंके समान मालूम होते हैं। इसे पदस्थ ध्यान कहते हैं ।
चंद्रकांतमणिसे निर्मित एक उज्ज्वल प्रतिमा स्फटिकके घड़े में जिस प्रकार रहती है उसी प्रकार यह आत्मा इस देहमें रहता है ऐसा एकाग्रचित्तसे विचार करना पिण्डस्थयोग है |
कोटिसूर्य व कोटिचंद्रके समान प्रकाशको धारण करनेवाले श्री आदिनाथ भगवान् हैं इस प्रकार ध्यान करना । हे देवी! बह् रूपस्थ ध्यान है ।
सर्वं कर्मसि रहित, निरुपम, निर्मल, निश्चल, चिद्रूपस्वरूप अनंतसुखी ऐसे सिद्ध भगवंत हमारे शरीरमें हैं ऐसी कल्पना कर एकान चिचितवा रूपातीत ध्यान है ।
देवी ! पहिले इन चारों ध्यानोंका अभ्यास कर बादमें तीन ध्यानोंको छोड़कर केवल पिण्डस्थ ध्यानसे ही ठहरनेकी आवश्यकता है, ज्ञानीगण इसी ध्यानकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करते हैं ।
पिण्डस्थ ध्यानमें ही बाकी सब ध्यान पिण्डित होकर रहते हैं । इसी पिण्डस्थ ध्यानसे ही कर्म खण्डित होते हैं और आत्माकी अखण्डित सुखकी प्राप्ति होती है।
देवी ! जप, स्तोत्र, दीक्षा, व्रत, स्वाध्याय, तप आदि दूसरे सब सहायक हैं। इतना ही नहीं, इस पिण्डस्थ ध्यानके सम्बन्धमें यही कहा जा सकता है कि यह मुक्तिके लिए साक्षात् बीज है। जिनेन्द्र भगवान्का प्रियमार्ग है । इसे निर्भेदभक्ति भी कहते हैं ।
देवी ! लोकमें दो प्रकारके प्राणी हैं। एक भव्य दूसरे अभव्य । जो लोग कभी मुक्तिको नहीं प्राप्त कर सकते और इस संसारके दुःखोंको अनुभव करते हुए अनाद्यनंत काल व्यतीत करते हैं वे अभव्य हैं। वे आत्मयोगकी अनेक प्रकारसे निन्दा करते हैं । इसको भव्य स्वीकार कर अनन्त सुखको पा लेते हैं ।
देवी ! व अभव्य जीव शास्त्रोंका पठन करते हैं । उपवासादिककर शरीर व पेटको सुखाते हैं । परन्तु उनका हृदय कठोर रहता है । वे पापी आत्मयोगको ढकोसला समझते हैं ।