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भरतेश वैभव
१७७ सम्राट्ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक माताके चरणोंमें मस्तक रखा। भातुश्रीने पुत्रके मस्तकपर हाथ रखकर "इन्द्रो भव ! पुनः इन्द्रपूज्यो भव ! सांद्रमुखी भव ! आशीर्वाद दिया। चलती-पलती पूछने लगी कि बेटा! सुन लिया? अपने छोटे भाईका हाल ! वह उपवास नहीं करता है। कमी का की सत्ताम करता रहता है। तुम व्यर्थ ही क्यों उपवास करते हो?
भरतेश्वर बोले -- माता! मैं क्या अधिक करता हूँ। चार पर्वके दिनोंमेसे किसी एक पर्व में उपवास करता हूँ। वह भी मेरा नियमव्रत है, यमवत नहीं। यमव्रतका आचरण करना कठिन है। नियमव्रत चाहे पालन कर सकते हैं। चाहे छोड़ सकते हैं। हमारे लिए इसमें कोई कष्ट मालूम नहीं होता है। ___ माताने कहा, बेटा! यदि तुम्हें कोई कष्ट नहीं मालूम होता हो, तो भले ही करो, परन्तु मेरी बहुओंको भी जबर्दस्ती यह व्रत कराकर कष्ट क्यों देते हो, यह तो कहो ? __ माताकी इस बातको सुनकर भरतेशको हँसी आई। वे बोले, माता ! क्या आपकी बहुयें आपके पुत्रसे भी अधिक प्रेमपात्र हैं ? बड़ी बहिनके पुत्रसे भी छोटे भाइयोंकी बेटियां अधिक हैं ? बड़ी बहिनका पुत्र जब भूखा रहता है तब छोटे भाइयोंकी बेटियां भूखी नहीं रह सकती हैं ? बड़ी बहिनसे भी छोटे भाई अधिक हैं। माता ! मैं स्वतः अपनी इच्छासे उपवास करता रहता हूँ। आपकी बहुओंको उपवास करनेके लिये कभी बाध्य नहीं करता है, वे ही अपने आप उत्साहसे उपवास करती हैं इसमें मैं क्या करूँ ? माता ! ये स्त्रियाँ महीनेमें एक उपवास करती है तो कौन बड़ी बात है ? जब वे शरीरके भोगमें बहुत समय लगाती हैं, तो क्या धर्मके लिये एक दिन भी नहीं लगावें? शरीरके भोगमें ही यदि अत्यन्त आसक्त हो जायें, तो पापका बंध होता है, उससे नरकादि दुर्गतिकी प्राप्ति होती है । माता ! जिस व्रतके लिये थोड़ा बहुत कष्ट उठाना पड़ता है उससे आगे जाकर मुक्तिकी प्राप्ति होती है । माता ! मनुष्य जन्म को प्राप्त करनेके बाद यथाशक्ति अधिकसे अधिक व्रतोंका पालन करना चाहिये । भोगमें उन्मत्त होना बुद्धिमानोंका कर्तव्य नहीं है। __इन बातोंको सुनती हुई माता यशस्वती बोल उठीं बेटा ! ठीक है, इसे रहने दो, तुमने मुनिदानकर भोजन करनेका जो बत लिया है वह
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