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भरतेश वैभव करके मनको अपनी आत्मामें लगा सुज्ञान समुद्रमें गोते लगा रहे थे । धन्य हैं !
उस समय ज्ञानज्योतिमय आत्माका उस शरीरमें उन्हें दर्शन हो रहा था। जैसे-जैसे आत्माका दर्शन अधिकाधिक हो रहा है, वैसे-वैसे कर्मोका अंश उतरता हुआ जा रहा है। जैसे-जैसे कोंका अंश कम होता जा रहा है, वैसे-वैसे ज्ञानका अंश बढ़ता जा रहा है । ज्ञानका अंश जिस प्रकार बढ़ रहा है, उसी प्रकार सुखकी मात्रा भी वृद्धिंगत हो रही है। उस समय स्वयं ही दर्शक थे, स्वयं ही दर्शनपात्र थे । स्वयं ही ज्ञायक थे, ज्ञेय भी स्वयं थे। अपने आप ही सुखका अनुभव कर रहे थे । इतने में वहाँपर कुसुमाजी आई।
कुसुमाजी आ रही हैं यह जात होनेपर भरतेश्वरने ध्यानका समारोप किया अर्थात् परमात्मध्यानकी अन्तिम स्तुति की एवं वीतरागाय नमः इस शब्दका उच्चारण करते हुए अपने मुखचंद्रपर पड़े हुए वस्त्रको हाथसे सरकाया। उठकर देखते हैं तो कुसुमाजी दरवाजे के पास ही संकोच के साथ इसलिये खड़ी हैं कि पतिदेव अभी निद्रावस्थामें हैं।
भरतेश उठकर कहने लगे कि प्रिये ! आओ। संकोच मत करो। वह हँसती-हँसती पासमें आई। पासमें आकर उसने भरतेश्वरपर गुलाबजल आदि छिड़के तथा उनको तांबूल दिया, परन्तु उसकी मुखाकृतिके दर्शनसे मालूम होता था कि उसके मनमें कोई विचित्र भाव चक्कर लगा रहा है। कहने में बहुत संकोच भी होता है । भरतेशको इसे समझने में देरी न लगी।
उन्होंने समझ लिया कि यथार्थ बात क्या है ? मुग्धा या मध्यमा जातिकी स्त्रियोंसे संकोचको दूर करनेके लिये पहिले अन्य प्रकारका सरस व्यवहार करना पड़ता है, नहीं तो वह देखने व बोलनेमें भी लज्जित होती है।
भरतेश मनमें कुछ विचार कर कहने लगे कि कुसुमी ! आज कुसुमाजी हमारे पास क्यों आई ? जरा पता चलाकर बोलो तो सही।
कुसुमाजी कहने लगी कि स्वामिन् ! बह आपके पास हँसती-हँसती न मालूम क्यों आई ? भगवान् ही जाने।
भरतेश कहने लगे कि उसके मुखको देखते समय तो ऐसा मालम होता है कि वह हमसे आज कलह करनेके लिये आई है । क्या यह सच है ? उससे पूछकर बोलो तो सही ।