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भरतेश वैभव रूपको किसीने चित्रित कर दिया है। भरतेश्वर कोई सामान्य पुरुष नहीं हैं । वे शुद्ध वंशोत्पन्न, सत्कुलप्रसूत क्षत्रिय जातिके हैं। उसमें भी योगीके समान हैं । इसलिये उनको आँख मींचते ही भगवान्के दिव्यका दर्शन होगा।
इधर वे बहत तन्मयताके साथ अपने देहमें ही भगवान्का मामात्कार कर रहे हैं. उधर भरतेश्वरकी देवियाँ क्या कर रही हैं, जगा यह भी देखें । सभी सातियाँ श्री देवाधिदेव भगवान्के मन्दिरमें पहुँचकर त्रिलोकीनाथकी बड़ी भक्ति के साश्च स्तुति कर रही हैं।
अयंत मून्दर म्बरके साथ जिस समय वे उस विशाल मंदिरमें गा रही थीं, उस समय उनकी स्तुतियों की प्रतिध्वनि वहाँपर गुंज उठी ।
प्राकृत, संस्कृत, कर्नाटक, पैशाचिक, मागधी शंशव और शौरसेनी आदि अनेक भाषाओंमें उन्होंने भगवानकी स्तुति की। __हे देवोत्तम ! आपका दिव्य शरीर रत्नके ममान अत्यन्त उज्ज्वल है. आपकी जय हो।
हम लोग जन्ममरण रूपी संसारके फंदेमें पड़कर अत्यन्त कष्ट पा रही हैं । उसे दूर कर हे स्वामिन् ! आप हमारी रक्षा करें।
स्वामिन् ! आपके पुत्रके समान हमें शुद्धात्मयोगका अनुभव नहीं होता है, फिर भी इन आपके चरणोंमें श्रद्धा रखती हैं।
स्वामिन् ! अभेदभक्तिसे युक्त ध्यानमें हमारा मन नहीं लगता है ! उममें चित्त चंचल होता है । इसलिये हमें उसके लिये शक्ति व योग्यता दीजिये । कृपा कीजिये।
यह स्त्रीवेष परमकप्टका है। यदि आपने हमें आत्मयोगके मार्गको दिखलाया तो हम अवश्य ही इस स्त्रीजन्मको नाष्ट करेंगी, इस प्रकार तरह-तरह स्तुति करने लगीं।
इतनेमें भरनेशने अपने ध्यानको पूर्ण किया एवं अपनी स्त्रियोंके साथ मुनिबामकी ओर गये। वहाँपर मुनियोंके चरणोंमें अन्यन्त त्रिनयके साथ मस्तक रखा। बादमें उन योगिगजोंकी साक्षीपूर्वक दिग्बत, देशवत आदि बनोंको ग्रहण किया। माथमें आज हम लोगोंको अनशन (उपवास) वत रह वह भी निवेदन किया । आज हमारे निप्पाप धर्मांगसंबंधी बोलना व देखना रहेगा। आज कामकी आवश्यकता नहीं, इसलिये हमें ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान कीजिये । यह कहकर अपनी स्त्रियों के सायमें ब्रह्मचर्य व्रतके कंकणसे बद्ध हुए।