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भरतेश वैभव वाचकोंको आश्चर्य होगा कि भरतेश्वर धर्म कार्य में प्रवृत्त होते हैं तो उसमें भी सर्व राजवैभवको भूलकर तन्मय हो जाते हैं। इस प्रकारको एकाग्नताको धारण करनेकी सामर्थ्य उनमें विद्यमान है । आश्चर्य है ।
बे सदा परमात्माके चिन्तवनमें इस प्रकार लगे रहते हैं कि हे चिदंबरपुरुष्प ! आप व्यापारश्न्य हैं, महान्य हैं, सुज्ञान दीपक है, लोकमें एक मात्र प्रतापस्वरूप है। निलंग हैं, परन्तु मेरे हृदय में लंपितके समान बने रहे । हे सिद्धात्मन् ! जिधर देखें उधर प्रकाशके स्वरूपमें आप दिखते हैं, आप ही मोक्षके बीज हैं। इसलिए मेरे चित्तमें भी प्रकाश देकर सन्मति प्रदान कीजिये। इसी भावनाका फल है कि सर्व कार्यों में उनकी तन्मयता होती है ।
इति पर्वाभिषेक संधि
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अथ तत्वोपदेश संधि
सम्राट भरत विधिपूर्वक त्रिलोकीनाथका अभिषेक कर चुके हैं । अब आदिप्रभकी वंदना कर वे अपनी देवियों के साथ स्वाध्यायशालामें चले गये। यह स्वाध्यायशाला अत्यंत विस्तृत व प्रकाशमय है । वहाँपर सूखे घाससे निर्मित संयम आसन बिछे हुए हैं। सभी आसनोंके बीचमें एक सोनेकी चौकी रखी हुई है।
राजयोगी भरत मध्यवर्ती आसनपर विराजमान हुए । इधर-उधरके आसनोंपर उनकी सभी देवियां विराजमान हो गई। उस समयका दृश्य ऐसा मालूम होता था कि मानों ये सब योगीके द्वारा सिद्ध विद्या की अधिदेवतायें हैं। उस स्वाध्याय गृहमें सुगन्धित गुलाब जल नहीं है। कोई हवा करनेवाले भी नहीं हैं और न कोई चामर ही कार रहे हैं। उन लोगोंके मुखसे भी कामसंबंधी कोई वचन नहीं निकलते और भोगके नामका भी स्मरण नहीं है। केवल मोक्षमार्ग में ही उस समय उनका चित्त था।
यदि वे लोग परस्पर बोलते तो धार्मिक विषयोंपर ही बोलते थे । यदि परस्पर एक दूसरेको देखते तो मद कामसे रहित शांतदृष्टि से ही देखते थे। जब किसी धर्मचर्चामें आनन्द आता तब ही वे हंसते थे,
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