________________
१२४
भरतेश वैभव
साक्षात्कार होने के समान दिख रहा है। मुलंशाखा, उपशाखा आदिमै जिस प्रकार वृक्षका अस्तित्व है उसी प्रकार मूलदेह, शाखादेह आदिमें व्याप्त होकर वे विक्रियांग भरतेश्वर सुखका अनुभव करने लगे हैं। नानारूप धारण कर नानाप्रकारके वस्वाभरण वे उनको दे रहे हैं। उसी प्रकार उन्हें जोरसे आलिंगन भी दे रहे हैं। उनकी लीला अपार है। इधर-उधर भरतेश ही भरनेश दिख रहे हैं। उत्तम बस्त्र-आभूषणोंको देते हए आलिंगन के साथ एक चुंबन भी दे रहे हैं। वहाँ अन्य कोई नहीं है। स्त्रियोंके सिवाय कोई नहीं होनेके कारण उनकी लीला अविरत चाल है। किसी का चुवन ले रहे हैं नो किसीको तांबूल देकर ही छोड़ रहे हैं। किसीका स्तनमर्दन कर छोड़ देते हैं। एक पुरुष एक स्त्रीको जिस प्रकार सन्तुष्ट करता है उसी प्रकार उन्होंने सब स्त्रियोंको सन्तुष्ट किया। उस भरतेश्वरके पौरुषको सर्वज्ञ ही जाने, प्रणयसुखमें सब स्त्रियाँ परवश हो गई, उस समय उनका कामवेग बढ़ने लगा। भरतेश्वर के ध्यानमें यह बात आई, उन्होंने कहा अब शय्यागृहकी ओर चलो। बस आदेशानुमार शय्यागृहकी ओर प्रस्थान किया, उनको साथमें भरतेश भी गये ।
भरतेश जहाँ जाते हैं वहाँ आनन्द ही आनन्द-समुद्र निर्माण करते हैं। सबके हृदयमें आनन्दका प्रकाश डालते हैं, इसका कारण क्या है ? यह उनके पूर्वापाजित पुण्यका फल है। वे सतत परमानन्दमय, प्रकाशगज परमात्माका इन शब्दोंसे स्मरण करते हैं कि हे चिदंबर पुरुष ! अन्धकारको दूर कर प्रकाशपजमें दरबार लगाओ, और कहीं भी न जाकर मेरे हृदय में सदा निवास करने रहो ! हे सिद्धात्मन् ! अगणित अनन्त मगुणोंसे मुशोभित हे महादेव ! सदा मुझे सन्मति प्रदान कीजिए एवं मेरी वाक्यक्तिमें बल प्रदान कीजिये ।
इति तांडयविनय सन्धि
..---
अथ शय्यागृह संधि राजहंस जिस प्रकार राजहंमीके साथ एक सरोवरसे अन्य सरोवरकी तरफ जाता है, उसी प्रकार भरतेश्वर उस नाटकगृहसे निकल. कर अपनी रानियोंके साथं गय्यामह की ओर जा रहे हैं।
उस माटकशालाका नाम वर्धनावती वहाँसे निकलकर पुष्करावती नामके शय्यागृहकी ओर वे जा रहे हैं। जाते हुए मार्गमें अत्यन्त वैभव