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भरतेश वैभव तो तुम्हें सिंहासनारूढ़ भरतेश्वरकी शपथ है। आगे आओ। इसपर वह पतिके सामने न आकर पतिके दाहिने भागपर आठ पैर आगे बढ़कर आई। भरतेश्वरने पुनः कहा देवी ! तुम इश्वर गई तो तुम्हारे साथ बोलनेवाले की है। यह कर बह पांरफ आकर बड़ी हो गई। इस प्रकार इधरसे उधर उधरसे इधर होती हुई उस पद्मिनीके नवीन नृत्यका आभास होने लगा । देवी ! उस समयका नृत्य सुन्दर था। परन्तु इस समयका नुत्य उससे भी बड़कर सुन्दर है। भरतेशने पुनः विनोद से कहा।
पधिनी अन्दरसे हँस रही थी। गरदन शकानेपर भी मनमें आनंद है । कारण क्रि भरतेश्वर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। सर्व रानियोंने मिलकर अब पद्मिनीको समझाया । पन्निनी ! बिनाकारण हट करना नहीं, पतिदेवके मनको दुखाना नहीं । रूपाणीने हमारी बात मान ली । तुम भी उसी प्रकार करो। उन सबकी बात सुनकर पमिनी अब पासमें आ गई और भरतेश्वरके चरणों में नमस्कार करने लगी। उसी ससय भरतेश्वरने कपड़ेसे अपना मुख ढक लिया । सबको आश्चर्य हुआ । सबने पुनः विनयसे पूछा कि प्राणनाथ ! मुख ढकनेका क्या कारण है ? वह अब आकर नमस्कार कर रही है । और क्षमायाचना कर रही है । फिर नाराज होने का क्या कारण है ?
भरतेश्वर उसे मेरा मुह दिखानेकी इच्छा नहीं। उसका मुंह मुझे देखनेकी इच्छा नहीं है। जो शपथकी परवाह नहीं करती है उसे मह दिखाना यह मेरी न्यूनता है।
स्वामिन् ! शपथकी परवाह उसने नहीं की यह कैसे कहा जा सकता है ? शपथ डालते ही वह चलकर आगे आ गई। सब स्त्रियोंने पद्मिनीका पक्ष लेकर कहा।
भरतेश्वर - दाँये व बाँये तरफ गई तो क्या मेरी तरफ आई क्या ? उसका सब ढोंग मुझे मालूम है । तुम लोग चुप रहो। मैं सब देख लूंगा।
पद्मिनी ! पहिले ही हम लोगोंने कहा था कि पतिदेबके साथ अतिवाद डालना योग्य नहीं है । तुमने सुनी नहीं । अब किसी भी तरह पतिदेवका समाधान करो। पद्मिनीको सर्व रानियोंने समझाकर कहा ।
पमिनी किंकर्तव्यविमूढ़ा होकर बैठ गई है। अब क्या करें ? उनमें कुछ अनुभवी स्त्रियाँ थीं। उन्होंने भरतेश्वर व उसके अंतरंगको जानकर कहा कि देवी ! घबराना नहीं। यह कौनसे महत्वका कार्य है ?