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भरतेश वैभव सम्राट्का ख्याल है कि वे जिस सुखको भोग रहे हैं वह पापरहित सुख है। क्योंकि उसे भोगते हुए भी वे अपनेको भूल नहीं रहे हैं व उस सुखको बाह्म व हेय सुख समझ रहे हैं, इसलिए भोग भोगते हुए भी कमोंकी निर्जरा हो रही है। भरतेश अपने मनमें समझ रहे हैं एक मात्र परमात्मका सुख शाश्वत व उपादेय है। उसका अस्तित्व मेरी आत्माके साथ वनलेपके समान है।
जिस प्रकार पित्तोद्रेक होनेपर शरीरशोधन कर पित्तशांति की जाती है एवं उस अवस्थामें वह मनुष्य स्वस्थ रहता है उसी प्रकार भरतेश भी कामरूपी पित्तके उग्र होनेपर स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा कर उसे शांत करते थे एवं बादमें स्वस्थ अर्थात अपनी आत्मामें लीन होते थे। __उत्तम स्त्रियोंके साथ भोग करनेसे भरतेशके कमौका संवर तो होता ही था । साथमें वे पंदेदनीयकर्मको भी जद में जिलाते हे। सचमुच में भरतेश एक वीतरागी भोगी हैं। ___ अन्य भोगियोंके भोगमें उदासीनता, उपेक्षा व मनमें अप्रसन्नतादि बातें भी रहा करती हैं परन्तु भरतेश व कुसुमाजीका संयोग पुष्प व भ्रमरके संयोगके समान है । आनंद समुद्र में डुबकी लगा रहे हैं । लीलानदीमें तैरते हैं। या उन दोनोंकी क्रीड़ा झूलेपर चढ़े हुए मोर मोरनीके समान है।
पांचों इंद्रियोंकी तृप्ति हुई। भरतेश व कुसुमाजीको किंचित् तंद्रा आई । दोनोंने आँख मींचकर मृदुतल्पमें थोड़ीसी निद्रा ली। दोनों अत्यंत प्रसन्नचित्तसे सो रहे थे। निद्रावस्थामें स्वप्न पड़ने लगा । स्वप्नमें भरतेशको चिद्रूप परमात्मा दिख रहा है। कुसुमाजीको भरतेशका रूप दिख रहा है। ___ कुछ देरके बाद वह मूर्छा दूर हो गई। "निरंजनसिद्ध" शब्दको उच्चारण करते हुए भरतेश वहाँसे उठे। उसी समय कुसमाजी भी उठौं।
उसी समय इधर-उधरसे बहुतसे दासदासी आये। उन लोगोंने गुलाबजल, कपूर, तांबूल, आदि आवश्यक पदार्थोको लाकर सम्राटकी सेवामें उपस्थित किये । उनको सम्राट्ने ग्रहण किया ।
तदनंतर मनोरंजनके लिये वीणावादन कराया गया। वीणा कलामें कसुमाजी अत्यंत प्रवीण थीं। उन्होंने अनेक प्रकारके कौशल्यको बतलाते हुए वीणावादन किया जिसे चक्रवर्तीका मन अत्यंत प्रसन्न हो