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भरतेश वैभव
हे सिद्धात्मन् ! आप सारासार विचारपरायण हैं, मातिशय आत्मा हैं, महात्मा हैं, सद्गुणशृङ्गार हे निरंजनसिद्ध ! मुझे सदा सन्मति प्रदान कीजिये। इमीका फल है कि वे पदा आत्मानन्दमें मग्न रहते हैं।
इति सरस संधि
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अथ सन्मान सन्धि सम्राट् भरत अपनी रानीके साथ जब महलके ऊपरके भागमें पहुँचे तब उस महलकी मजावटको देखकर वे चकित हुए । कुसुमाजीसे कहने लगे कि कुसुमाजी ! यह महल तुम्हारे नामके समान ही कुसुमोपहारोंसे युक्त है । यह कुसुममालाओंसे युक्त चन्दोबा कितना अच्छा है।
ये वीचके झालरदार सुन्दर कपड़े कहाँसे आये? क्या हमारे श्वसुरजीके घरसे आये हैं ? बोलो तो सही।
मोती व माणिककी ये संदर लड़ कहाँसे आई है ? मेरी सासूने मेरी प्रसन्नताके लिए भेजी है क्या ?
यह ऊपरका सफेद बढ़िया चंदोबा कहाँसे आये? क्या तुम्हारे बड़े भाईने तुम्हारे चित्तकी प्रसन्नताके लिये भेजा है ?
ये सब फूलकी मालायें आदि कहाँसे आई ? क्या तुम्हारे छोटे भाइयोंने भेजी है ?
कुसुमाजी ! यहाँ की सजावट हर प्रकारसे सुन्दर हो गई है। इसे देखकर मैं प्रसन्न हुआ हूँ। यह घर नवरत्नमय शोभित हो रहा है । मैंने तो तुम्हें इन पदार्थोंको कभी दिया नहीं. फिर तुम कहाँसे इनका संग्रह कर लाई ? बोलो तो सही 1 इम प्रकारसे भरत बड़े आग्रहके साथ पूछने लगे । बोलते समयं प्रेमसे कभी उसे कुसुमि, कुसुमे, कुसुम, कुममाजी, कुसुमकोमले, कुसुमांगि, कुमुममालांगि, कुसुममाला, कुसुमिति, कुसुमिनि इत्यादि अनेक तरहसे संबोधन कर वे उससे बोल रहे थे।
तब कुसुमाजी कहने लगी कि स्वामिन् ! मैं मायकेके घरसे इन पदार्थोको क्यों मैगाऊ ? मेरे पतिदेवके भवन में क्या कमी है ? जब यहाँ नवनिधि ही हैं, तब मुझे बाहरसे किस बातकी आवश्यकता है ?