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भरतेश वैभव
दृष्टिसे सिर मुंडनेके बदले मनको मुंडनमें अधिक महत्व है। शरीरको सुखानेके स्थानमें कर्मको सुखानेमें उनको अधिक आनंद आता है। बाह्यद्रव्योंको देखते हुए किये जानेवाले तपोंकी अपेक्षा आत्मदर्शनपूर्वक की जानेवाली तपश्चर्या उन्हें अधिक प्रिय है। __ शास्त्रके मर्मको न समझकर वोवल वस्त्रको ही परिग्रह समझ उसे त्याग करनेवाला मुनि नहीं है । बस्त्रके समान ही तीन लोक व शरीर परिग्रह हैं । ऐसा समझकर वे केवल आत्मामें तृप्त होनेवाले राजयोगी हैं । परिग्रहके बीच में बैठे रहनेपर भी वे परिग्रहसे अलग हैं । शरीरके अन्दर रहनेपर भी वे शरीरसे भिन्न हैं। सचमुच में उनकी अलौकिक शक्ति है । लोककी सर्व स्त्रियोंको छोड़कर आनी स्त्रीमें रत होनेवाला क्या वह जड़ ब्रह्मचारी है ? नहीं ! नहीं ! केवल आत्मामें रत होनेवाला बह भरत दृढ़ ब्रह्मचारी है । विचार करनेपर आत्माका ही नाम ब्रह्मा है । अपनी आत्मारूपी आकाशमैं अपने मनका संचार करना यही तो ब्रह्मचर्य है और यही मुक्तिका बीज है । ___ स्त्रियोंका त्याम करना यह व्यवहार-ब्रह्मचर्य है। अपने चित्तको आत्मामें लगाना यह निश्चय-ब्रह्मचर्य है।
बाह्म सर्व परिग्रहोंको छोड़ अंतरंग परिग्रहोंसे परिपूर्ण दभाचारी मुनि जमतमें बहुत होते हैं। क्या भरतेश्वर वैसे हैं ? नहीं ! नहीं ! बाह्यरूपसे देखा जाय तो भरतेशके पास सब कुछ है । भीतर कुछ नहीं है । आंतरिक सब परिग्रहोंका उन्होंने खंडन किया है इमलिए वे बड़े आचार्य के समान हैं।
उनकी कितनी प्रशंसा करें ! भोजन करते हुए भी वे उपवासी हैं । भोगते हुए वे ब्रह्मचारी हैं । हाथमें भूमण्डल होनेपर भी निष्परिग्रही हैं । शिरमें बालोंकी वृद्धि होनेपर भी उनका सिर मनुमुण्डित है। ऐसे अद्भुत तपस्वी हैं वे ।
जिन ! जिन ! आश्चर्यकी बात है कि भरतने आँख मींचकर अपने शरीरमें अपने आपको देखा । वहींपर सिद्धपरमेष्ठीका दर्शन किया व आत्मसुखका अनुभव किया । ___ भरतेशको इस समय सर्वांगमें आत्मा दैदीप्यमान दिख रहा है; जैसे-जैसे आत्माका दर्शन होता है वैसे-वैसे कर्म ढीला होकर निजीर्ण होता है । जैसे-जैसे कर्म निकलता जाता है, वैसे-वैसे ही चैतन्यप्रकाश बढ़ रहा है एवं भरतजीको अपूर्व सुखका अनुभव हो रहा है।