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भरतेश वैभव तो अपनी बड़ी बहिनको देख लू इस अभिलाषासे यहाँ इस महलमें आई, परंतु मुझे उसका फल मिला। अब मैं चुपचाप अपने गाँवको जाऊँगी। अब इस गांवका नाम लिया तो मै कन्या नहीं हैं। समझी? देखो तो सही । मानियोंके सामने आनेपर जिस प्रकार मानभंग किया जाता है उसी प्रकार इसने हमारा अपमान किया है। हाथीके समान खींचकर मुझे ले गया। क्या इसे यह राजा है इस बात का अभिमान है ? इन बातोंको करती हुई मकरंदाजी बीच बीच में अपने मुखके आकारको रोनेके समान कर रही हैं । कभी आँखोंको मलती है। भीतर संतोष है केबल बाहरसे वह इस प्रकार बोल रही है। कभी भरतेशकी ओर टेढ़ी आँखोंसे देख रही है, और फिर लंबी सांस लेकर मह छिपाकर फिर जरा हंसती भी है। ___ भरतेश भी इस प्रकारकी उसकी वृत्ति देखकर मन ही मनमें हँस रहे हैं । कुसुमाजीकी ओर इशारा कर रहे हैं कि इनको ठकबाजी देखो तो सही । कुसुमाजी बहिनसे कहने लगी कि बहिन ! इस प्रकार क्यों दुःखी हो रही हो । तुम्हें क्या हुआ? मकरन्दाजी कहने लगी कि बहिन ! रहने दो तुम्हारी बात ! तुम्हारे कारण ही मेरा सर्वनाश हो गया । सर्वस्व हरण हो गया । __ तब उसे सुनकर कुसुमाजी व्यंगभावसे कहने लगी, हाँ ! मेरी बहिनका बहुत अलाभ हुआ ! बहुत क्षति हुई ! ___ मकरन्दाजी कहने लगी कि क्या तुम वैश्य या शुद्र जातिमें उत्पन्न हो ? क्या जातिक्षत्रियोंकी कन्यायें इस प्रकार कभी बोल सकती हैं ? तुम इस प्रकार क्यों बोलती हो। कुमारी कन्याको दूसरे पुरुष आलिगम करे यह मरणके समान है । और क्या खराबी होने में कुछ बाकी रहा है ?
कुसुमाजी कहने लगी कि बहिन ! हमारे विवेकी पतिदेवके सामने तम्हारी कृत्रिम बातें नहीं चल सकती हैं। वे तो हर एकके भावको अच्छी तरह जानते हैं। तुम्हारी आँखोंसे निकलनेवाली आंसुओंकी धाराको देखकर उनको बड़ा दुःख हो रहा है। अब तो रोना बन्द करो! बस ! बहुत हो गया।
मकरन्दाजीको मालूम हुआ कि मेरा रोना झूठा है यह बात इन्हें मालम हो गई, आँखोंसे आंसू ही नहीं निकलते और यह इस प्रकार कहती है। इसलिए वह अब आँखोंको मल-मलकर उससे पानी