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भरतेश वैभव
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"जिनसिद्ध" ऐसा उच्चारणकर आश्चर्य करने लगी कि कहीं मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ ?
इतने में वहाँ बहुतसी स्त्रियां कुसुमाजीके साथ क्रीडाक लिये आईं। कुम्माजी बीती हई आश्चर्यप्रद घटनाओंको किसीसे नहीं बोलती हुई सदाकी भाँति खेल में लग गईं।
इस प्रकार कुसुमाजीके चरित्रको मुमनाजीने रचकर तैयार किया और अमनाजीने उसे लिखा। यह सामान्य चरित्र नहीं है। यह चक्रवर्तीकी पुण्यसंपत्तिके वैभवसे पूर्ण है।
इसमें कोई दोष हो, तो आप श्रीमान् इसका संशोधन कर देवे ।
भरलेश्वरने कहा कि इसमें कोई दोष नहीं है। यह काव्य जिन शरण होकर सर्वकाल इस भूमण्डलको सुशोभित करे।
इस प्रकार उपर्युक्त चरित्रको बांधकर उस सुन्दरीने ग्रन्थको बांध दिया।
सम्राट भी चरित्रको सुनकर मन ही मन आनंदित हो रहे थे । विचार करने लगे कि कुसुमाजी बहुत चतुर हैं, किस कुशलतासे वह जोतेके साथ बातचीत कर रही थी? उनको सुनकर कविताबद्ध रचना करनेवाली ये रानियाँ भी कम चतुर नहीं हैं।
तोते के साथ बातचीत करती हुई उसके स्वरसे ही तोतेके शरीर में प्रविष्ट हुई व्यंतरकन्याको पहिचान लिया, यह आश्चर्य की बात है।
अच्छा हुआ कि तोतेके शरीरमें व्यंतरकन्या थी इस निश्चयसे ही कुसुमाजी वहाँ बैठी रहीं। यदि उसके शरीर में कदाचित् पुरुष होता तो यह कभी वहाँ नहीं बैठ सकती थी । पहिलेसे घबराकर इधर-उधर भाग जाती। इस प्रकार भरतेश्वरने अपने मन में अनेक प्रकारके विचारोंसे प्रसन्न होकर जिसने काव्यको बाँचा उसका अनेक वस्त्रआभूषणोंसे सत्कार किया एवं उस काव्यकी रचयित्री दोनों रानियों व कुसुमाजी को फिर अच्छी तरह सन्मानित करूँगा यह विचारकर वे वहां महलकी ओर जाने के लिये उठे। इतने में वह अंतःपुरका सभाभवन जयजयकार शब्दमे गूंज उठा।
पाठकोंको आश्चर्य होगा कि सम्राट भरतकी इस प्रकार प्रशंसा क्यों होती थी ? उनको ऐसी अद्भुत बिवेक-जागृति क्यों हुई थी ? इसका सीधा साधा उत्तर यह है कि भरत महाराज सदा अपनी आत्माके गुणों की प्राप्ति के लिए इस प्रकार प्रार्थना करते थे हे आत्मन् !