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दादाश्री के पास रिलेटिव प्रोब्लम के लिए विधियाँ करवाकर जाते हैं, वह क्या है? दादाश्री कहते हैं, 'यह तो देव-देवी ही कर सकते हैं। इसीलिए मैं उन्हें फोन कर देता हूँ और सिफारिश कर देता हूँ क्योंकि हमारी सभी देवी-देवताओं से पहचान है न!'
यशनाम कर्म किसे मिलता है? जिन्हें खुद के लिए कुछ भी करने की इच्छा नहीं है, जो रात - दिन यही सोचा करते हैं कि 'इन सब का भला किस तरह से हो' जो औरों के लिए ही जीते हैं, उन्हें ज़बरदस्त यशनाम कर्म मिलता है। वह पुण्य से नहीं मिलता । सामनेवाले का किंचित मात्र भी अहित ना हो, दुःख न हो, हमेशा वही ध्यान में रखते हैं । वे यशनाम कर्म बाँधते हैं। दादाश्री को कभी भी ऐसा नहीं होता था कि 'मुझे क्या ।' बुरा करने की भावना से अपयश नामकर्म बंधता है।
‘जगत् का कल्याण करना है दुश्मन का भी कल्याण करना है', ऐसा जिनके रोम-रोम में बसा हो, वे उच्चत्तम यशनाम कर्म बाँधते हैं।
[ २.८ ] गोत्रकर्म
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गोत्रकर्म दो प्रकार के हैं । उच्च गोत्र और नीच गोत्र । उच्च गोत्रवाला जहाँ जाए वहाँ सभी उसके पैर छूते हैं और नीच गोत्रवाले की सब निंदा करते हैं।
जो शराब पीए, मांसाहार करे, गलत रास्ते पर जाए, वे सभी लोकनिंद्य बनते हैं। उच्च गोत्र का अहंकार करना, सुपीरियरिटी कॉम्पलेक्स में आता है। नीच गोत्र से इन्फीरियरिटी कॉम्पलेक्स में आता है, उससे नए भावकर्म बंधते हैं।
इस काल में तो जो लोकनिंद्य नहीं है, उन्हें लोकपूज्य मानना चाहिए। सचमुच के लोकपूज्य तो मिलने ही मुश्किल हैं !
दान करना, सत्कार्य करना, वह सब नामकर्म में आता है और लोक कल्याण का भाव करना गोत्रकर्म में आता है।
श्रेणिक राजा ने महावीर भगवान के दर्शन से ही तीर्थंकर गोत्र बाँध
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