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को सुख नहीं मानते और अशाता को दुःख नहीं मानते। जिसका ज्ञान मज़बूत हो, वह कुछ भी नहीं भोगता। वह भोक्ता बनता ही नहीं हैं। ज्ञानी मात्र ऐसा जानते हैं कि यह वेदना देह की है, उसे भोगते नहीं है। इसमें वेदनेवाला कौन है? अहंकार। आत्मा वेदता ही नहीं है। ज्ञानी निरअहंकारी होते हैं। वेदनेवाला उनमें बचा ही नहीं न! केवल 'जाननेवाला' ही बचा है। 'मुझे बहुत दुःख रहा है, सहन नहीं हो रहा' ऐसे करके अज्ञानी बहुत वेदता है।
भगवान महावीर को भी शाता-अशाता वेदनीय थे। कान में बरू डाले तब भयंकर अशाता वेदनीय आई थी लेकिन उसमें उनका ज़बरदस्त तप रहा। उन्हें देह की वेदना थी लेकिन मानसिक या वाणी की वेदना नहीं थी।
अक्रम के महात्माओं के मानसिक दुःख मिट गए हैं! दैहिक दुःख महसूस होते हैं।
परम पूज्य दादाश्री को जब पैर में फ्रेक्चर हुआ तब वे बिल्कुल भी अशाता वेदनीय के भोक्ता नहीं थे। निरंतर मुक्त हास्य ही था।
दादाश्री को क्रॉनिक ब्रोन्किाइटिस था, हमेशा खाँसी रहती थी। दादाश्री उसे महान उपकार मानते थे। क्योंकि खाँसी नींद से उठा देती है
न!
निरालंब दशावाले को शाता-अशाता स्पर्श ही नहीं करते, उन्हें तो मात्र ‘शाता-अशाता को संयोग जानूँ ... '
[२.७ ] नामकर्म मैं चंदूं हूँ, मैं गोरा हूँ, मैं मोटा हूँ, मैं इन्जीनियर हूँ, ये सभी द्रव्य कर्म हैं। नाम और रूपकर्म में नाम, रूप और डिज़ाइन सभी कुछ आ जाता है।
लोग ऐसा कहते हैं कि चित्रगुप्त ने अपना हिसाब लिखा है लेकिन वास्तव में ऐसा कोई लिखनेवाला व्यक्ति है ही नहीं। यह चित्रगुप्त के हिसाब की किताब नहीं है लेकिन यह गुप्त चित्र तो नामकर्म है। यह चित्रण ही नामरूप कर्म का है कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि ब्रह्मा ने गढ़ा है, वह
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