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दर्शन में हो लेकिन वर्तन में न हो तो वह इसलिए कि वर्तन के अंतराय हैं।
कुछ लोग धर्म की पुस्तकें जला देते हैं, मूर्तियाँ तोड़ देते हैं, फोटो जला देते हैं, फाड़ देते हैं । उससे बहुत ज्ञानांतराय पड़ जाते हैं। किसी के धर्म के प्रमाण को ठेस पहुँचाकर हम कभी-भी सुखी नहीं रह सकते । उसका फल आए बगैर नहीं रहता। अलग-अलग धर्मवाले धर्म के नाम पर आमने-सामने मार-काट करते हैं, हर एक व्यक्ति को उसका फल अवश्य मिलेगा ही। वह छोड़ेगा नहीं ।
सत्संग में आने का दृढ़ निश्चय करने से तो सत्संग के अंतराय टूट जाते हैं। निश्चय में इतना बल होता है कि चाहे कैसे भी अंतराय हों, वे उससे टूट जाते हैं। ‘रोज़-रोज़ सत्संग में क्या जाना?' उससे पड़ते हैं सत्संग के अंतराय। अनिश्चय से अंतराय पड़ते हैं ।
अक्रम ज्ञान से खुद का परमात्म पद प्राप्त होता है, लेकिन उसमें सतत तन्मयाकार नहीं रह पाते हैं न !
इच्छा करने से अंतराय पड़ते हैं ! जैसे-जैसे इच्छाएँ कम होती जाती हैं वैसे-वेसे अंतराय टूटते जाते हैं।
ज्ञानी को कोई इच्छा ही नहीं होती, इसलिए उन्हें किसी भी चीज़ के अंतराय नहीं रहते । ठेठ मोक्ष तक का निरंतराय पद होता है उनका ! जो कुछ भी इच्छाएँ दिखाई देती हैं, वे डिस्चार्ज इच्छाएँ होती हैं। उनमें चार्ज इच्छाएँ तो बिल्कुल बंद हो चुकी होती हैं।
'किसी की ताकत नहीं है कि मुझे मोक्ष में जाने से रोक सके।' ऐसा नहीं बोलना चाहिए। ऐसे भाव रख सकते हैं कि 'मुझे मोक्ष में ही जाना है। अगर कोई इसके बीच आएगा तो भी मैं रुकूँगा नहीं,' लेकिन बोलने का मतलब है खुल्ला अहंकार ।
इच्छा और निश्चय में क्या फर्क है ? इच्छा अर्थात् वह जो खुद की मनचाही चीज़ के लिए होती है और निश्चय अर्थात् निर्धार । पसंदीदा और
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