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भी कल्पना है। कोई बाप भी नहीं है ऐसा! भाव में से अपने आप ही चित्रण हो गया है।
___ यह नामकर्म पूर्व संचित कर्म है। इन्हीं के आधार पर हर एक के चेहरे, रूप-रंग अलग ही होते हैं, वर्ना सभी के चेहरे एक ही साँचे में ढले हुए हों, वैसे नहीं होते?
कोई आत्महत्या करता है तो वह भी नामकर्म की वजह से।
नामकर्म के कई प्रकार हैं। गोरा-काला, लंबा-नाटा, वह सब नामकर्म में आता है और अंग-उपांग वगैरह भी नामकर्म में आता है। जिसके कान की लोलकी अलग हो तो वह मोक्ष का अधिकारी है, वह हृदयमार्गी होता है। जिनके कान बड़े होते हैं, वे महत्वकांक्षी होते हैं, धर्म में या संसार में।
तीर्थंकरों का नामकर्म कैसा होता है? तीर्थंकर बहुत लावण्यवाले होते हैं, देखते ही दिल को ठंडक हो जाए। उन्हें बस देखते रहने का ही मन होता है। उनमें पूरी दुनिया का नूर होता है।
आदेय नामकर्म अर्थात् जहाँ जाए वहाँ पर मान-तान, स्वागत होता है। और अनादेय नामकर्मवाले का कहीं भी स्वागत नहीं होता। कुल, जाति वगैरह सभी द्रव्यकर्म में आ जाते हैं।
यश और अपयश नाम कर्म हैं। कुछ भी नहीं किया हो फिर भी यश मिलता है और अपयश नाम कर्मवाला कर-करके अधमरा हो जाए तो भी कोई यश नहीं देता। ऊपर से अपयश देते हैं।
संत और भक्त चमत्कार करते हैं लेकिन वास्तव में जगत् में किसी इंसान से कोई चमत्कार हो ही नहीं सकता। यह तो उनका ज़बरदस्त यशनाम कर्म है जो उन्हें यश दिलवाता है।
परम पूज्य दादाश्री के पास तो रोज़ के दो सौ लोग आते थे, यश देते हुए। 'चमत्कार है', ऐसा कहकर ही तो! लेकिन दादा यश नहीं लेते थे, वे तो यह कहकर उड़ा देते थे कि 'यह तो हमारा यशनाम कर्म है'।
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