Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रश्नव्याकरणसूत्रे आकृतिः, शीलं च स्वभावः, एतानि प्रत्ययः कारणं यस्य तत् मायानिगुणं चनिन्दनीयस्य प्रशंसा प्रशंसनीयस्य निन्दा माया तत्सत्त्वादेव निगुणं गुणरहिते स्वपरहितादिवर्जितं 'चवला' चपलाः अस्थिरान्तःकरणाः मृषावादिनो भणन्ति । पुनः कथं भूतमलीकमित्याह-'पिसुणं' पिशुनं-परदोषाविष्करणरूपं 'परमट्ठभेदगं' परमार्थभेदकं परमार्थो मोक्षः, तत्प्रतिघातकम् ' असंतकं ' असत्कम्=परमार्थवर्जितं 'विदेस' विद्वेष्यम्=अप्रियम् ‘अणस्थकारगं' अनर्थकारक-धर्मादिपुरुषार्थ विघातेन नरकगमनजननमरणाद्यनर्थजनकं 'पावकम्ममूलं पापकर्ममूलं पापं ज्ञानावरणादिकर्म तत्कारणं 'दुट्टि' दुर्दृष्टं दुष्टं दष्टं यत्र तत् दुर्दृष्टं कुत्सितदर्शनं 'दुस्सुयं' दुःश्रुत-दुष्टं श्रुतं यत्र तत्तथा दुश्रुतं दुष्टश्रवणम् ' अमुणिय' अज्ञानं अज्ञानरूपं स्वपरहितवर्जित ऐसे वचनों को बोला करते हैं। मातृ पक्ष का नाम जाति, पितृपक्ष का नाम कुल, रूप का नाम आकृति और शील का नाम स्वभाव है। तथा ( चवला) जो अस्थिर अन्तः करणवाले मृषावादी जन होते है वे पिशुनादि विशेषणों वाले असत्य वचन बोलते हैं । वे इस प्रकार जो वचन (पिसुणं ) पर के दोषों के प्रकट करने वाले होते हैं। (परमट्ठभेदगं) परमार्थ-मोक्ष के भेदक होते हैं। (असंतगं) असत्कं परमार्थ से रहित होते हैं । (विद्देसं ) विद्वेष्य-अप्रिय होते हैं । ( अणस्थकारंग) अनर्थकारक-धर्मादिक पुरुषार्थ के विघातक होने से नरक गमन जनन मरणादिरूप अनर्थ के उत्पादक होते हैं । ( पावकम्ममूलं) पापकर्म के मूल-ज्ञानावरणादिरूप कर्म के कारण-होते हैं । ( दुट्ठि) दुईष्ट-दुष्ट दर्शनवाले हैं-अर्थात्-इन वचनों द्वारा जो दर्शन प्रतिपादित किया जाता है वह कुत्सित-सदोष होता है । (दुस्सुयं) दुःश्रुत होते हैंપક્ષને જાતિ, પિતૃ પક્ષને કુળ, રૂપને આકૃતિ અને શીલને સ્વભાવ કહે છે. तथा “ चवला" ययण भनवा भृषावाही सोडी पिशुनाहि विशेषवाणi असत्य वयनी मोसे छे. ते या प्रमाणे छ ? वयन “पिसुणं” मन्यना होषाने प्रगट ४२नारा होय छ, “परमभेदगं” ५२माथ-मोक्षने महनार डायछे. " असंतग" असर४-५२माथ: २डित जय छ, “विदेस" विद्वेष्य-मप्रिय डाय छे, " अणत्थकारगं" सनथ ४।२४-धादिपुरुषाय ना विधात डावाथी न२४ गमन न भरणाहि५ सनथ ना त्पा डाय छ, “पावकम्ममूलं" ॥५भन भूग-ज्ञाना१२९॥य मा भर्नु-२ डाय छ, “दुट्ठि” दु -दुष्टદર્શનવાળાં છે, એટલે કે ને વચનો દ્વારા જે દર્શનનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવે छे ते युत्सित-सहोष हाय छे, “ दुस्सुय” दुःश्रुत-रेने सinानु ५ ।
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર