Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रश्नव्याकरणसूत्रे जाय कुहियदेहा । कृमिजातकुथितदेहाः कृमिजातेन = रोगादि कारणात् समूत्पन्नकृमिसमूहेन कुथितदेहा: दुर्गन्धयुक्तशरोराः 'अणि?वयणेहि' अनिष्टवचनैः =अभियवचनैः 'सुटुकयं जं मोत्ति पावो ' सुष्ठुकृतं = शोभनं जातं यत् =यस्मात् मृतोऽयं पापः = पापी इत्येवं रूपः 'सप्पमाणा' शप्यमानाः== आक्रोश्यमानाः 'तुटेण जणेण हण्णमाणा ' तुष्टेन जनेन हन्यमानाः तेषां मारणेन प्रसन्नो यो जनस्तेन ताडयमानाः सन्तः ‘सयणस्स विय ' स्वजनस्यापि च किं पुनरन्येषाम् — दीहकालं ' दीर्घकालं यावत् 'लज्जावणगाय' लज्जापनकाः= लज्जालज्जारहिता इत्यर्थ ' हुंति' भवन्ति ।। मू० १७ ॥
एवमिह लोके दुःखमाप्नुवन्तीत्युक्तम्, अय परलोके किं भवती ? त्याह'मयासंता' इत्यादि
___ मूलम्-मयासंता पुणो परलोगसमावण्णा नरए गच्छंति निरभिरामे अंगारपलित्तगकप्पअच्चस्थतीयवेयणा असायणो दिये जाते हैं । तथा ( केइ ) कितनेक अदत्तग्राही चोर जो मरने से बाकी बचे रहते हैं वे ( किमिजायकुहियदेहा ) रोगादिक कारण के वश से अपने शरीर में उत्पन्न हुए कीड़ों से दुर्गधित शरीर वाले होकर (अणिदुवयणेहिं ) लोगों के इस प्रकार के अप्रियवचनों से कि-(सुटुकयं जं मओत्ति पावो) भला हुआ जो यह पापी मर रहा है" अथवा मरे हुए सा हो रहा है " इस प्रकार ( सप्पमाणा ) गालियों से अपमानित होते हैं। तथा उनकी मृत्यु से प्रसन्न होने वाले मनुष्यों से ताडित होकर ( सयणस्स वि य ) स्वजनोंसे भी और दूसरोंसे भी (दोहकालं ) बहुत समयतक ( लज्जावगाय ) लज्जित (हुति ) होते हैं। सू-१७॥
भवायले सने तेना ४४३ १४॥ ४२सय छ, तथा ' केइ" 26! महत्तपाडी यो ले भातमाथी पये छ त “किमिजायकुहियदेहा" शाह કારણેથી તેમનાં શરીરમાં ઉત્પન્ન થયેલ કીડાઓથી દુર્ગંધ યુક્ત શરીરવાળા थईने “ अणिद्रवयणेहिं " साना २१ २ मप्रिय पानाथी ‘सप्पमाणा" अपमानित थाय छ-" सुटुकयं जं मओत्ति पावो" " सारथयुं २ पापी म! शत भरी रह्यो छ” अथवा “ भरेशान की स्थिति अनुलवे छ. ' तथा तमना भृत्युथी मुशी थना२॥ भासे! द्वा२। भा२ पान “सयणसविय" स्वाना तथा oilet सोथी “ दीहकालं" aiमा समय सुपी 'लज्जावगाय" Horon 'हुंति” पाभे छ । सू-१७॥
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર