Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रश्नव्याकरणसूत्रे
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वचनाध्ययनोक्त विशेषणानि यथायोग्यानि संग्राह्याणि । चिरपरिचियं ' चिरपरि चितम् = अनादिकालादनुभूयमानम् ' अणुगयं ' अनुगतं = प्राणिनां पृष्ठतो लग्नम्, 'दुरंतं ' दुरन्तम् = दुःखावसानम्, 'त्तिबेमि' इति ब्रवीमि = एतद् जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्मस्वामिवाक्यम् ॥ सु० २१ ॥
इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य सुदर्शन्याख्यायां व्याख्यायां हिंसादि पञ्चास्रवद्वारेषु अदत्तादानाख्यं तृतीयधर्मद्वारं समाप्तम् ॥ ३ ॥
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यावत् ' शब्द से द्वितीय अलीक वचन संबंधी अध्ययन में जो विशेषण कह गये हैं उनका यहाँ यथायोग्यरूप में संग्रह कर लेना चाहिये । यह अदत्तादान ( चिरपरिचियं ) अनादिकाल से जीवों के अनुभव में आ रहा है (अणु ( मिथ्यात्व ) के कारण यह आत्मा के पीछे लगा हुआ है | ( दुरंतं) दुःखप्रद ही इसका परिणाम - फल है । ( तिबेमि ) ऐसा मैं कहता हूं । इस प्रकार से यह जंबू स्वामी के प्रति सुधर्मा स्वामी ने कहा है | सू ० २१ ॥
॥ तीसरा आस्रव - ' अधर्म ' द्वार समाप्त ॥
ખીજાની વસ્તુનું હરણ કરાવનાર લાભ, વગેરે સઘળી ખાખતાનું મૂળ કારણ या महत्ताहान छे, सहीं " यावत् ' ” શબ્દથી અક્ષીક વચન વિષેના ખીજા અધ્યયનમાં જે વિશેષણેાના ઉપયાગ કરાયા છે, તેમના સગ્રહ અહીં ચાગ્ય शेते अरी सेवानी छे, या महत्ताहान " चिरपरिचियं " मनाहि अजथी भवाना अनुलवमांग्याची २ड्यु ं छे, (अणुगयं) मिथ्यात्वने अरणे ते आत्मानी पाछज लागेलु ं छे, (दुरंतं) तेनु इज-परिणाम दु:महायी छे, (त्तिबेमि) मेवु' हु' उडु छु, म अभागे सुधर्भास्वामी स्वामीने ड्यु, ॥ सू, २१ ॥
॥ श्रीले खास्रव - 'अर्धभ ' द्वार समाप्त ॥
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર