Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 994
________________ प्रश्रव्याकरणसूत्रे प्त्यर्थ नैवाधिको यत्नो विधेयः, 'न तुसियव्व ' न तोष्टव्यं-तत्प्राप्तौ परितोषो न कर्तव्यः, 'न हसियव्वं न हसितव्यम्-माप्तौ विस्मयेन हासो न कर्तव्यः। तथा श्रमणः 'तत्थ ' तत्र-पूर्वोक्तभुक्ततद्विषये ' सई च' स्मृति-स्मरणं च' मति बुद्धिनिवेशं च ' न कुज्जा' न कुर्यात् । ' पुणरवि ' पुनरपि उच्यते-' फासिंदिएण' स्पर्शेन्द्रियेण ' अमनुण्णपावगाई ' अमनोज्ञपापकान अरुचिकरानित्यर्थः, 'फासाइं ' स्पर्शान् ' फासिय' स्पृष्ट्वा 'किंते' काँस्तान् कथम्भूतांस्तान् ? इत्याह- 'अणेगवह-बंध-तालणं-कण- अइभारारोवण-अंग-भंजण-सूईनखप्पवेस हसियव्वं, न सइं च मइं च तत्थ कुज्जा) कभी भी आसक्ति से अपने चित्त को नहीं बांधना चाहिये, उनमें रागभाव नहीं करना चाहिये। गृद्धिभाव नहीं करना चाहिये । उन में मुग्ध नहीं होना चाहिये-उनके निमित्त अपने चारित्र का परित्याग नहीं कर देना चाहिये । उनमें लुभाना नहीं चाहिये। और न उनकी प्राप्ति के निमित्त प्रयत्न ही करना चाहिये । यदि ये अनायास प्राप्त हो भी जावें तो उनकी प्राप्ति में परितोष नहीं मानना चाहिये । और प्राप्ति में कोई विस्मय आश्चर्य ही नहीं करना चाहिये । तथा श्रमण को इन पूर्वक्ति अनुभवित स्पों में अपनी स्मृति को एवं बुद्धि को भी नहीं लगाना चाहिये। (पुणरवि) इसी तरह फिर ( फासिदिएण ) स्पर्शन इन्द्रिय से ( अमणुण्णपावगाइं) अमनोज्ञपापक-अरुचिकारक-पों को स्पर्श करके उनमें साधु को द्वेष नहीं करना चाहिये । ( किं ते ? ) वे अमनोज्ञ पापक स्पर्श किन २ पदार्थों में रहते हैं, इस प्रकार के प्रश्न का उत्तर देने के लिये सूत्रकार कहते हैं कि (अणेगवबंध-तालणंकण-अइभारारोवणन हसियठब, न सई च मइंच तत्थ कुज्जा' ही ५५ मासतिथी पाताना ચિત્તને બાંધવુ નહીં, તેમનામાં રાગભાવ કરવો નહીં. તેની લાલસા રાખવી નહીં. તેમાં મુગ્ધ થવું નહીં તેને ખાતર પિતાના ચારિત્રને પરિત્યાગ ન કરવો જોઈએ. તેમાં લેભાવું ન જોઈએ અને તેની પ્રાપ્તિને માટે વધુ પ્રયત્ન પણ કરવું જોઈએ નહીં. જે તે અનાયાસે મળી જાય તો તેની પ્રાપ્તિથી પરિતોષ માનવે જોઈએ નહીં. તેની પ્રાપ્તિમાં વિસ્મય પણ બતાવવું જોઈએ નહીં. અને સાધુએ એ પૂર્વોક્ત અનુભવેલ સ્પર્શેનું સ્મરણ કરવું જોઈએ નહીં અને तेभनी विया२ ५४ ४२ नही. " पुणरवि" ४ ते ' फासिंदिएण" २५शेन्द्रियथी “ अमणुण्णपावगाई" समनास पा५४-२५२थि।२४ पनि। २५श ४ीने तेमना प्रत्ये साधुसे द्वेष ४२वो नये नही. " किं ते " ममनोज्ञ ५६५४-मरुथि।२४ २५शवाणा या ४या पहा छ, ते प्रश्नना उत्त२ मा५तi सूत्र२ ४३ छ, “अणेगवहबंध--तालणंकण--अइभारारोवण શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર

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