Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 965
________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०८'चक्षुरिन्द्रियसंवर'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ९०७ प्लवक-लासकाख्यायक-लङ्ख-मङ्ख तूणिक तुम्बवीणिक तालाचर प्रकरणाणि च, नटनर्तकादिपदानां व्याख्याऽस्यैवप्रथमभावनातोऽवगन्तव्याः, 'बहूणि ' बहूनिअनेकविधानि 'सुकरणाणि ' सुकरणानि-शोभनक्रियायुक्तानि दृष्ट्वा, नटनर्तकादीनां बहुविधान् मनोहरव्यापारान् दृष्टेत्यर्थः, तेषु तथा 'अण्णेमु य ' अन्येषु चैतद्भिन्नेषु ' एवमाइएमु ' एवमादिकेषु एवंविधेषु 'मणुनभदएसु' मनोज्ञभद्रकेषु 'रूवेमु' रूपेषु-चक्षुह्यविषयेषु 'समणेण' श्रमणेन-साधुना 'न सज्जियव्वं' न सक्तव्यम्, न रज्जियव्वं' न रक्तव्यम् 'जाव' यावत्-यावत्करणात् 'नगिझियव्वं' न गर्षितव्यम्' 'न मुज्झियव्वं न मोहितव्यम् , 'न विणिघायमावज्जियव्वं न विनिघातआपत्तव्यः तथा-'न लुभियव्वं न लोब्धव्यम् , 'न तुसियब्वं' न तोष्टव्यम् , नट,-नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, बेलवक, कथक, पूलवक, लासक, आख्यायिक, लंख, मंख, तूणिक, तुम्बवीणिक, तालाचार, इन सब के मनोहर व्यापारों को जों (बहूणि) अनेक प्रकार के होते हैं और (सुकराणि ) शोभन क्रिया संपन्न रहा करते हैं उनको देख करके, तथा ( अण्णेसु एवमाइएसु रूवेस्तु मणुण्णभदएसु) और भी जो इसी प्रकार के मनोज्ञभद्रक रूप हों उन्हें देख करके (समणेण ) साधु को (तेसु) उनमें (न सज्जियव्वं ) आसक्त नहीं बनना चाहिये । (न रज्जियवं) राग नहीं करना चाहिये। यहां यावत् शब्द से (न गिज्झियचं) गृद्धिभाव नहीं करना चाहिये-अर्थात्-उनमें ललचाना नहीं चाहिये । ( न मुज्झियव्वं ) न मोह करना चाहिये, (न विणिघायं आवज्जियव्वं ) उनके लिये चारित्र का भंग न करे, (न लुभियव्वं ) लोभ न करे, (न तुसियव्वं ) प्रसन्न मन नहीं होना चाहिये, (न हसियचं ) लायर-पकरणाणि" नट, नत, ४६८, भौष्टि, मेस १४, ४५४, १४, सास આખ્યાયિક, લંખ, ખ, તુંણિક, તુબવીણિક, તાલાચાર, એ બધાનાં મનહર व्यापार २ 'बहूणि ” मने प्रा२ना डाय छे, मन “सुकराणि" सुंदर ठिया युद्धत हाय छे, तेमने बने तथा “ अण्णेसु एवमाइएसु रूवेसु मणुण्ण भदएसु" से ४ ५२i lot ५५ रे मनोज्ञ मद्र४३५ य तेमन धने “समणेण" साधुसे “ तेसु' तेमनामा “न सज्जियव्व” मासत मे नी, “न रज्जियव्व” २११ ४२॥ ४ नही, “न गिझियव्व" तेमा सयान नही, " न मुज्झियव्य" तेने भाट भार ४२॥ बस नही, “न विणिघाय आवज्जियव्व" तेने भाटे यात्रिन मन ४२ मध्ये "न लुभियव्य" सोम ३२३न नही, " न तुसियव्व" શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર

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