Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 979
________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०९ ‘घ्राणेन्द्रियसंवर'नामकतृतीयभावनानिरूपणम् ९२१ भिगन्धान्-अत्यन्तामनोज्ञगन्धयुक्तान् अघ्राय — समणेण ' श्रमणेन-साधुना 'तेसु' 'तेषु-पूर्वोक्तेषु तथा एवमाइएसु' एवमादिकेषु -एवं प्रकारेषु 'अण्णेसु य' अन्येषु च 'अमणुन्नपावगेसु ' अमनोज्ञ पापकेषु गन्धेषु 'न रुसियव्वं ' न रोष्टव्यम् , 'न हीलियव्वं ' न हीलितव्यम् , ' जावः' यावत्-यावत्करणात्-'न निन्दितव्यम् , न खिसितव्यम् , न छेत्तव्यम् , न भेत्तव्यम् , न हन्तव्यम् , न जुगुप्सावृत्तिकाऽपि लाभ्योत्पादयितुम् । एवं घ्राणेन्द्रियभावनाभावितो भवति अन्तरात्मा =जीवः । ततश्च मनोज्ञामनोज्ञसुरभिदुरभिरागद्वेषे प्रणिहितात्मा साधुर्मनोवचनकायजाते हैं, और उस समय उनकी दुर्गन्ध बहुत अधिक असह्य हो जाती है सो (समणेण) साधु को इनकी दुर्गन्ध में तथा ( एवमाइएसु अन्नेसु तेसु अमणुण्णपावगेसु ) इनसे भिन्न इसी तरह की और भी अमनोज्ञ उन अशुभ गंधों में (न रुसियव्वं न हीलियव्वं जाव पणिहिय पंचेंदिए धम्मं चरेज्ज ) रोष नहीं करना चाहिये, उनकी अवज्ञा नहीं करना चाहिगे, यहां यावत् पद से " न निंदियव्वं, न खिसियव्वं, न छिदियव्वं, न भिदियव्वं, न वहेयव्वं, न दुगुंछावत्तियाबिलब्भा उप्पाए उं एवं घाणिदिय भावणा भाविओ भवइ अंतरप्पा मणुण्णामणुण सुन्भि. दुभि रागदोसे पणिहियप्पा साहू मणवयणकाय गुत्ते संबुडे) इन पूर्वोक्त समस्त पदों का संग्रह और अर्थ पहले की तरह कर लेना चाहिये । अर्थात् निंदा, खिसा, छेदन, भेदन, नहीं करना चाहिये और न उनके विषय में साधु को जुगुप्सा-घृणा-वृत्ति ही करनी उचित है। इस प्रकार घ्राणइन्द्रिय की भावना से भवित अन्तरात्मा होता है तब वह मनोज्ञ त्यारे तेभनी दु" upt ०४ सय ५४ ५७ छ. तो “ समणेण ” साधुमे तेभनी दुगध प्रत्ये तथा “ एवमाइएसु अन्नेसु तेसु अमणुण्णपावगेसु" ते उपरांत ते प्रा२नी अभनाश मशुम हुम धो प्रत्ये "न रुसियब्बन हीलियब्व जाव पणिहिय पंचे दिए धम्मं चरेज्ज" ३१५ ४२वो नये नही, तेभनी अवज्ञा ४२वी ने नही. मी यावत्-श४थी “न निंदियव्व', न खिसियव्व', न छिंदियव्व', न भिंदियव्व', न वहेयव्व, न दुगुंछावत्तियाविलब्भा उप्पाएउं एवं घाणिदियभावणाभाविओ भवइ अंतरप्पा मणुण्णामणुण्णसुभिदुभिरागदोसे पणिहियप्पासाहू मणवयकायगुत्ते संवुडे" पूरित ये सजा पहोने अड ४२ લેવાના છે અને આગળ બતાવ્યા પ્રમાણે તેમને અર્થ સમજી લેવાને છે. એટલે કે નિંદા, ખ્રિસા, છેદન, ભેદન કરવું જોઈએ નહીં અને તેમના પ્રત્યે સાધુએ જુગુપ્સા–ધૂણાવૃત્તિ પણ રાખવી જોઈએ નહીં. આ રીતે જ્યારે અંતરાત્મા ધ્રાણેન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત થાય છે ત્યારે તે મને જ્ઞરૂપ ધ્રાણેન્દ્રિ શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર

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