Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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દરર
प्रश्रव्याकरणसूत्रे भिषणायां 'जुत्ते' युक्तः संलग्नः ' समुदाणेऊण' समुदानीय-भिक्षार्थमनेकगृहेषु भ्रमित्वा 'भिक्खाचरियं उंछ' भिक्षाचर्यामुञ्छाम्=अल्पाल्पग्रहणरूपांभिक्षा
घेतूण ' गृहीत्वा गुरुजनस्य 'पास' पार्श्व-समीपं आगए ' समागतः ' गमणागमणाइयारपडिकमणपडिक्कंते । गमनागमनातिचारप्रतिक्रमणप्रतिक्रन्त :गमनागमनातिचाराणां प्रतिक्रमणेन ईर्यापथिकीमायश्चित्तेन प्रतिक्रान्तः-निवर्ति-- तपापः, ' गुरुजणस्स ' गुरुजनस्य ' ' गुरुसंदिहस्स' गुरुसन्दिष्टस्य-गुरुणा निदिष्टस्य रत्नाधिकस्यान्यमुनेरन्तिके वा 'जहोवएसं ' यथोपदेशम् उपदेशानतिक्रमेण · निरइयारं ' निरतिचारं च ' आलोयणा दायणं च दाऊण' आलोचना दानं च दत्त्वा यथा यथा भिक्षा गृहीता तथा तथा सर्व समालोच्य — अप्पमत्ते' अपमत्तः-प्रमादवर्जितः 'पुणरवि' पुनरपि चागामिकाले 'अणेसणाए' अनेषगुण के योग से जो युक्त बना हुआ है वह विनयगुण संप्रयुक्त कहलाता है ऐसा (भिक्खू ) साधु (भिक्खेसणाए जुत्ते ) भिक्षैषणा में संलग्न होकर वह (समुदाणेऊण ) भिक्षार्थ अनेक घरों में घूमें, और वहां से ( भिक्खायरियं उंछं ) अल्प अल्प रूप में भिक्षा (घेत्तूण) ग्रहण करके फिर वह (गुरुजणस्स पासं आगए ) अपने गुरुजन के पास में आवे। (गमणोगमणाइयारपडिक्कमणपडिकंते आलोयण दायणंच दाऊण ): और वह गमनागमन के अतिचारों के प्रतिक्रमण से ईर्यापथिकी प्रायश्चित्त से प्रतिक्रान्त बने इस तरह निवर्तितपाप होकर वह (गुरुजणस्स ) गुरुजन के (वा) अथवा (गुरुसंदिट्ठस्स ) गुरु से संदिष्ट अन्य रत्न त्याधिक मुनि के (जहोवएस) उपदेश के अनुसार जहां २ से भिक्षा उसने ली है उस उस प्रकार से सबकी (निरइया) निरतिचारआलोचना करे आलोचना करके (अप्पमत्ते) प्रमाद वर्जित, बना हुआ तथा छ ते विनयगुण सप्रयुटत' उपाय छ. मेवा “ भिक्खु" साधु "भिक्खे. सणाए जुत्ते ” भिक्षानी मेषामा ' समुदाणेऊण" भिक्षाने माटे मने घरे ३२, मन त्यांथी “भिक्खायरिय छ" ५८५ २६५ मात्रामा भिक्षा घेत्तूण' अडए। शने ते “गुरुजणस्स पासं आगए" पोताना शुरुननी पांसे यावे, " गमणागमणाइयारपडिक्कमणपडिकंतआक्कोयणवायणं य दाऊण” मन ते ગમનાગમનના અતિચારોના પ્રતિકમણ વડે ઇર્યાપથિકી પ્રાયશ્ચિત્તથી પ્રતિકાન્ત थाय भने थे. रीते पानी निवृत्त थने ते “गुरुजणस्स “ शुरुनने “वा" अथवा “गुरुसंदिगुस्स” गुरुथी निहिट अन्य २त्नत्रयधारी भुनिनी "जहोवएसं" ઉપદેશ પ્રમાણે જ્યાં જ્યાંથી તેણે ભિક્ષા મેળવી હોય તે તે પ્રકારે તે સૌની "निरइयार" निरतियार मालोयना ४२. मासोयना रीन“ अप्पमत्ते"
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર