Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८७३ आसक्तिवर्जितः । निप्परिग्गहरुई ' निष्परिग्रहरुचिः-परिग्रहरुचिरहित इत्यर्थः, 'निम्ममे' निर्ममः ममत्वभाववर्जितः 'निस्सिनेहबंधणे' निःस्नेहबन्धनः= निर्गतं स्नेहबन्धनं यस्मात्सः-स्नेहबन्धनरहित इत्यर्थः, 'सव्वपावविरए' सर्वपापविरतः-कायिकवाचिकमानसिकसर्वविधपापवर्जित इत्यर्थः, तथा-'वासीचदणसमाणकप्पे' वासीचन्दनसमानकल्पः, वासी वसुला' इति भाषाप्रसिद्धा, सेव-वासी-तक्षकत्वेन अपकारी, तस्मिन् तथा चन्दनमिवोपकारकत्वेन चन्दनम् = उपकारी, तस्मिंश्च अपकारके उपकारके द्वयोरपि समानः सदृशः कल्पः आचारो यस्य स तथोक्तः । यथोक्तम्
" योमामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥ १॥"
एवं से ' इत्यादिटीकार्थ-( एवं ) इस प्रकार साधु धर्म में लवलीन बना हुआ ( से संजए ) वह संयमीसाधु (विमुत्ते ) संग्रह करने से विमुक्त बन जाता है ( निस्संगो) आसक्ति से वर्जित हो जाता है (निप्परिग्गहरूई ) परिग्रह की रुचि से रहित हो जाता है ( निम्ममे ) ममत्वभाव से विहीन हो जाता है ( निस्सिणेहबंधणे ) स्नेहरूपबंधन से मुक्त बन जाता है ( सव्वपावविरए ) कायिक, वाचिक एवं मानसिक सर्वप्रकार के पापों से विरत हो जाता है ( वासीचंदणसमाणकप्पे ) तथा वासी ( वसुला ) के जैसे अपकारक में और चंदन के जैसे उपकारक में एकसा आचार वाला बन जाता है । जैसे कहा है
" यो मामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ।
शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥१॥" टी -20 प्र१२ साधु धर्ममा बीननेस " से संजए" ते सयभी साधु " विमुत्ते" सड ४२वाना र्यथी विभुत थ य छ, “निस्संगो" सासतिथी २डित मनी लय छ, “निप्परिगहराई” परियडनी सयिथी २डित थ६ लय छ, “ निम्ममे " ममत्व मा विनानी मनी तय छ, “निस्सिणेह बंधणे" स्ने ३५ मधनथी भुत थ लय छ, “सव्वपावविरए” यि, पाथि भने मानसि से सर्व प्रा२नां पापाथी वि२४त 25 1य छ “ वासी चंदणसमाणकप्पे" तथा पinal “ वसुला" न वा अ५४१२४ प्रत्ये तथा ચંદનના જેવા ઉપકારક પ્રત્યે એક સરખા બની જાય છે. જેમકે કહ્યું છે
" यो मामपकरोत्येष, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षाधुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥ १॥
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર