Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
सुदर्शिनी टीका अ० ३ स्०४ कोमुनिरदत्तादानादिवतमाराधयति
७२७
अप्रमाणभोजी=द्वात्रिंशत्कवलाधिकाहारी, 'सययं ' सततं = निरन्तरम् ' अणुबद्धवैरे ' अनुबद्धवैरः = अव्यवच्छिन्नवैरभावः, च=पुनः 'निच्चरोसी' नीत्यरोषी = सदाकोपशील:, ' से तारिसए' स तादृशः साधुः ' नाराहए' नाराधयति ' इणं इदम् = पूर्वोक्तं, व्रतम् = अदत्तादानविरतिस्वरूपम् ॥ ० ३ ॥
"
कः पुनरिदं व्रतमाराधयितुं समर्थः ? इत्याह-' अह केरिसए ' इत्यादिमूलम् - अह केरिसए पुणाई आराहए वयमिणं ? जे से उवहि भत्तपाणसंगहणदाणकुसले अच्चंत बाल दुब्बल गिलाण बुड्ढखवगपवत्तयआयरिय उवज्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सिकुलगणसंधे य चेइयट्टे निजरही वेयावच्चं अणिस्सियं दसविहं बहुविहं करेइ, नय अवियत्तस्स घरं पविसइ, न य अचियत्तस्स भत्तपाणं गिण्हइ, न य अचियत्तस्स सेवइ पीढफलग -- सेज्जा - संथारग-- वत्थपाय- कंबल - दंडगरओहरण- निसज्जचोलपट्टगमुहपोत्तियपाय पुंछणाइ - भायण
अपने और पर के चित्त में उद्वेगभाव पैदा कर देने वाला साधु असमाधिकारक है, (सया अप्पमाण भोई) सदा बत्तीस ग्रास से अधिक भोजन करने वाला साधु अप्रमाणभोजी कहलाता है ( सययं अणुवद्धबेरे य) जिसका वैर भाव कभी भी शांत न हो वह साधु सत्तानुबद्ध वैर कहलाता है, (निच्चरोसी) जो नित्य ही कुपि स्थिति में रहता है वह नित्यरोषी कहलाता है। ( से तारिसए) इस प्रकार तपस्तेन आदि विशेषणवाला साधु ( इणं वयंनाराहए ) इस महाव्रत की आराधना नहीं कर सकता है ॥ ३ ॥
66
छे, " असमाहिकरे " पोताना तथा अन्यना शित्तम उद्वेग हा ४२नार साधुने અસમાધિકારક કહે છે, या अपमाणभोई સદા ખત્રીશ કેાળિયા કરતાં पधारे आहार बेनार साधुने सप्रमाणु लोक आहे छे, “सययं अणुबद्धवेरेय " જેની વેર ભાવના કદી પણ શાન્ત ન થાય તે સાધુને સતતાનુદ્ધ વૈર કહેवाय छे. " निच्चरोसी " ने हमेशां डोधभां रहे छे तेने नित्यशेषी आहे
69
छे, " से तारिसए" मा रीते तपशोर आदि विशेषण वाणी साधु" इणंवय " मा महाव्रतनी माराधना उरी रातो नथी ॥ ३ ॥
नाराहर
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર