Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०६ 'विविक्तवसतिवास'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ७४३ शाला-रथादिगृहम् , कुप्यशाला गृहोपकरणशाला, मण्डपः-विश्रामस्थानम् , शून्यगृहं प्रसिद्धं, स्मशानम्-प्रसिद्धम् , लयनं-गृहम् , आपण:=पण्यस्थानम् , ' हाट' इति भाषा प्रसिद्धम् , एषां समाहार द्वन्द्वस्तस्मित्तथोक्ते, अर्थात्-देवकुलादिरूपेऽष्टादविधे, तथा- अनमिय ' अन्यस्मिंश्च ‘एवमाइयंमि' एवमादिके-एवं विधे कथं भूते ? इत्याह-' दगमट्टिय-बीय-हरिय-तस पाण असंसत्ते' दकमृत्तिका बीजहरितत्रसप्राणसंसक्ते-दकम् जलम् , मृत्तिका प्रतीता, बीजानि= शाल्यादीनि, हरितानि दूर्वादीनि त्रसप्राणाः-द्वीन्द्रियादयः, तैरसंसक्ते रहिते, पुनः कीदृशे ? 'आहाकडे' यथाकृते गृहस्थेन स्वार्थ निर्मिते 'फामुए ' प्रासुके =निर्दोषे 'विचिक्ते-स्त्रीपशुपण्डकरहिते, अत एव-' पसत्थे' प्रशस्ते श्रेष्ठे साधुनिवासयोग्ये ' उवस्सए' उपाश्रये-साधुभिः 'विहरियव्वं' विहर्त्तव्यं= आश्रयितव्यं ' होइ' भवति । एतादृशे उपाश्रये साधुभिर्निवासः कर्तव्य इत्यर्थः। स्थान में, उद्यान में-उपवन में, यानशाला में-रथादि गृह में, कुप्यशाला में-गृहोपकरण रखने के स्थान में, मंडप में-विश्राम स्थान में-शन्य गृह में-सूने घर में, इमशान में-मरघट में, लवन में-पर्वत की तलहटी में निर्मित पाषण घर में, आपण में-हाट में (अनमि य एवमाइयम्मि) तथा इसी तरह के दूसरे स्थान में कि जो (दगमटिय-बीय-हरिय-तसपाण असंसत्ते) जल, मृत्तिका, बीज, दूर्वा, द्वीन्द्रियादिक त्रस, इन से रहित हो, तथा ( अहाकडे ) जिस गृहस्थ ने अपने निमित्त बनवाया हो, एवं जो ( फाप्लुए) निर्दोष हो, तथा (विवित्त ) स्त्री, पशु, पंडक से रहित हो और ( पसत्थे) प्रशस्त-साधुजनों के निवास योग्य हो ( उवस्सए) ऐसे उपाश्रय में (होइविहरियव्वं ) साधुओं को रहना चाहिये। (अहाયાનશાલામાં રથાદિ ગૃહમાં, કુખ્યશાલામાં-ગૃહોપકરણ રાખવાની જગ્યામાં, મંડપમાં–વિશ્રામ સ્થાનમાં, શૂન્યગૃહમાં-સૂના ઘરમાં, સ્મશાનમાં (મરઘરમાં), सयनमां-पतनी तणेटीमा स्येस पाषाणु धमा, मामा-भां, “अन्नम्मि य एवमाइयम्मि" तथा मे प्रा२नां मन्य स्थानमा २ “ दगमट्टिय-बीय -हरिय-तसपाणअसंसत्ते" ४ माटी, भी४. दूर्वा, विन्द्रीया स से माथी २डित डाय, तथा “ अहाकडं " 2 इथे पाताने माटे नाव. शव्यु डाय, मने २ “ फासुए" निषि हाय, तथा “ विवित्त " स्त्री, ५१, ५४थी २हित हाय, भने “ पसत्थे” प्रशस्त-साधुनाना निवासन भाट यो जय " उवस्सए " सेवा पाश्रयमा “होइ विहरियव्वं” साधुमारी २ न. “अहाकम्मबहुले य जेसे" मने उपाश्रय आयाम महु डाय
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર