Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० २ सस्थावराद्यपरिग्रह निरूपणम्
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मूलादियाई' पुष्पफलकन्दमूलादिकानि प्रतीतानि तथा - सणसत्तरसाई' शणसप्तदशानि= शणः =त्वक प्रधाननालोधान्यविशेषः स सप्तदशो येषां तानि तथोक्तानि सप्तदशसंख्यकानि, 'सव्व घण्णाई' सर्वधान्यानि ' तीहि वि' जोगेहिं ' त्रिभि रपि योगेः = बाङ्मनः कायलक्षणैस्त्रिभिरपि योगैः परिषेत्तुं ' परिग्रहीतुं न कल्पन्ते । ' किं कारणं' किमर्थं परिग्रहीतुं न कल्पन्ते ? इत्याह- ' अपरिमिय णाणदंसणधरेहिं ' अपरिमितज्ञानदर्शन धेरैः =अपरिमितानि यानि ज्ञानदर्शनानि तानि धरन्ति ये ते तैः केवलज्ञान केवलदर्शन धरैरित्यर्थः पुनः - ' सीलगुणविणयतवसंजमनायकेहिं ' शीलगुणविनयतपः संयमनायकैः, तत्र - शीलम् = आत्मसमाधिः, गुणाः = ज्ञानादयः, विनयः अभ्युत्थानादिकः तपः संयमौ प्रतीतौ तान्नयन्ति= वर्द्धयन्ति ये ते तैः, पुनः- तित्थंकरेहिं ' तीर्थङ्करैः - शासनप्रवर्तकैः पुनः - ' सव्व जगजीववच्छले हि' सर्वजगज्जीववत्सलैः = सर्वजगतां ये जीवास्तेषु तदुपरि बत्सलैः =परमकारुणिकैः पुनः कीदृशैः ? 'तिलोयमहिएहि ' त्रिलोकमहितैः = लोकत्रयपुष्प, फल, कन्द, मूल आदिकों को तथा ( सणसत्तरसाई) शण- त्वक्रू प्रधान नालो धान्य विशेष यह है सत्रहवां जिन्हों का ऐसे (सञ्चधण्णाई समस्त धान्यों को ( न यावि तीहिंविजोगेहि परिघेत्तुं ) मन, वचन और काय, इन तीनों योगों से ग्रहण करना कल्पित नहीं है । (किं कारणं ) क्या कारण है कि वे नहीं कल्पता है ? इस पर कहते हैं ( अपरिमियणाणदंसणधरेहिं ) अपरिमित अंपार - अनंत केवलज्ञान, केवलदर्शन, को धारण करने वाले, (सीलगुणविषयतवसंजमनायगेहिं ) शीलआत्मसमाधि, ज्ञानादिगुण अभ्युत्थानादिरूप विनय, तप और संयम इनको बढाने वाले, (तित्थयरेहिं ) तीर्थंकर - शासन प्रवर्तक, (सव्वजगजीववच्छ लेहिं ) समस्त जगत के जीवों के ऊपर परम करुणाशील, (तिइयाई " पुष्य, इ, उ, भूज, महिने तथा सण सत्तरसाइ शशु-रेशाવાળી વાળાથી યુક્ત ધાન્ય વિશેષ જેમાં સત્તરમું છે એવાં सव्वघण्णाई સમસ્ત ધાન્યાને “ न यावि तीहिं विजोगेहिं परिधेत्तं " भन, वयन भने हाय, से त्रोना योगथी श्रणु खानु मुदयतुं नथी. " किकारणं " ते नहीं उदयवानुं अरशु शु छे ? तो सूत्रअर हे छे - " अपरिमियणाणदंसणधरेहि અપરિમિત–અપાર–અનત કેવળજ્ઞાન, કેવળ દનને ધારણ કરનાર सील-गु णविणयतवसंजम नायगेहिं " शील- आत्म समाधि, ज्ञानाहि गुण, अभ्युत्थाનાકિરૂપ વિનય, તપ અને સયમ, એને વધાવાનાર, " तित्थय रेहिं " तीर्थકર શાસન પ્રવર્તોક, " सव्वजगजीवत्रच्छले हि સમસ્ત જગતનાં જીવાત પ્રત્યે અત્ય તકરુણાશીલ, तिलोय महिएहिं " नशेोभां मान्य मेवां “ जिणवरि
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શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
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