Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रश्रव्या
एवं जातीयं वचनं ' कोहग्गिसंपलित्तो' क्रोधाग्निसंप्रदीप्तो नरो 'भणेज्ज' भणेत कथयेत् , ' तम्हा' तस्मात् कारणात् 'कोहो न सेवियचो' क्रोधो न सेवितव्यः। एवम् अनेन प्रकारेण खंतीइ' क्षान्त्या-उपशमेन ' भाविओ' भावितः ' अंतरप्पा' अन्तरात्मा-जीवः संयतकरचरणनयनवदनः शूरः सत्याजैवसंपन्नो भवति ।। ५ ।। इति द्वितीया भावना ॥ २ ॥ वचनों को ( कोहग्गिसंपलित्तो भवेज्ज ) क्रोधाग्नि से संतप्त हुआ मनुष्य कह दिया करता है। (तम्हा कोहो त सेवियव्यो) इसलिये क्रोध का कभी भी संयमीजन को सेवन नही करना चाहिये। (एवंखतीइ भाविओ अंतरप्पा ) इस प्रकार क्षान्तिपरिणति से वासित हुआ जीव (संजयकरचरणनयणवयणो) संयत कर, चरण, नयन वदन वाला हो जाता हैं और (सूरो) अपने सत्यव्रत की आराधना में पराक्रमशाली होता हुआ (सच्चज्जवसंपन्नो भवइ) सत्य और आर्जव इन दोनों से संपन्न बन जाता है।
भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा सत्यव्रत की दूसरी भावना का वर्णन किया है। वह भावना क्रोध निग्रह रूप है। क्षान्तिपरिणति क्रोध की होती है। मनुष्य पर जब इसका आवेश आ जाता है तो उसकी आकृति बदल जाती है उसका रूप रौद्र हो जाता हैं। इस स्थिति में उस का वचन व्यवहोर सत्यधर्म से प्रतिकूल हो जाता है ! वह इसके आवेश में यहा तद्वा वोलने लग जाता है । उसको इस बात का
एवमाइयं " से प्रा२न मी ५ असत्य क्यनी “कोहग्गिसंपलित्तो भवेज्ज" धानयुत मनुष्य यादी तय छ “ तम्हा कोहो न सेवियव्यो" ते १२) संयमी सोओही प] ओष ४२ मे नही. “एवं खंतीइ भाविओ अंतरप्पा" मा शते शान्तिपरिणतिथी सावित थये। ७१ " संजय करचरणनयणवयणो" सयत, हाथ, ५, नयन, पहनवाणे नय छ भने "सूरो" पोताना सत्यव्रतनी माराधनामा प्रशभ “सचज्जवसंपन्नो भवइ" सत्य અને આજેવ, એ બનેથી યુક્ત બની જાય છે.
ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા સત્યવ્રતની બીજી ભાવનાનું વર્ણન કર્યું છે. તે ભાવના ક્રોધનિગ્રહરૂપ છે. ક્ષાન્તિ પરિણતિથી ઉલટી પરિણતિ ક્રોધની હોય છે, મનુષ્ય પર જ્યારે તેને આવેશ આવે છે ત્યારે તેની આકૃતિ બદલાઈ જાય છે, તે રૌદ્રરૂપ ધારણ કરે છે. આ પરિસ્થિતિમાં તેનાં વયને તથા વ્યવહાર સત્ય ધર્મથી પ્રતિકૂળ થઈ જાય છે. તે તેના આવેશમાં ગમે તેવું
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર