Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सुदर्शिनी टोका अ० १ सू० ५ अहिंसापालक कर्त्तव्यनिरूपणम्
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रक्षणशासनेन ' भिक्खं ' भैक्ष गवेसियव्वं ' गवेषितव्यम् । तथा - 'न वि बंदणाए ' नापि वन्दनया = नापि प्रशंसया "दिव्यापिनो भवद्गुणाः पूर्वश्रुताः, परमद्यभवानस्माभिः प्रत्यक्षीकृतः ' इत्येवं रूपया, वन्दनशब्दोऽत्र प्रशंसावाचकः, न वि माणणया ' नापि माननया आसनादि प्रदानेन ' न विपूयणाए ' नापि पूजनया - दायकाय किंचिद्वस्तुप्रदानरूपया एतदेव समुदायेनाह - ' न वि वंदण - माण पूणा' नापि वन्दनमाननपूजनया ' भिक्तखं गवेसियन्वं ' भैक्षं गवेषित - आदि को पढ़ा दूंगा तो मुझे इसके यहां से भिक्षा मिलती रहेगी ऐसे विचार से जो भिक्षा प्राप्त हो तो वह भिक्षा भी मुनि को नहीं लेनी चाहिये | इसी तरह जिस भिक्षा की प्राप्ति में युगपत् दंभन, रक्षण और शासन इनका प्रयोग करना पड़ता हो उस तरह से भी मुनि को भिक्षा की गवेषा नहीं करनी चाहिये । तथा ( न वि वंदनाए, न विमाणणाए, न वि पूयणाए, न वि वंदण माणणवूयणाए, न वि हीलगाए, न वि निंदणाए, न वि गरिहणाए, नवि होलणा निंदणा
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रहणाए भिक्खं गवेसियन्वं) जिस भिक्षा की गवेषणा करने में साधु को दाता की " आप की गुणराज दिगन्ततक फैली हुई है- आपकी प्रशंसा मैं ने पहिले से ही सुन रखी है परन्तु साक्षात्कार आप का आज ही हुआ है इस प्रकार से वंदना - प्रशंसा करनी पडे ऐसी भिक्षा साधु को कल्प्य नहीं हैं। यहां वंदन शब्द प्रशंसार्थक है । जिस भिक्षा की प्राप्ति में दाता को आसन आदि का प्रदान पूर्वक सन्मान करके अर्थात् आसनादि प्रदान द्वारा दाता को प्रसन्न कर के भिक्षा की प्राप्ति करनी पडे - ऐसी भिक्षा भी साधु को लेना उचित नहीं है । इसी तरह दाता
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તેને ત્યાંથી ભિક્ષા મળ્યા કરશે,” એવા વિચારથી જે ભિક્ષા પ્રાપ્તથાય તે ભિક્ષા પણ સાધુને કલ્પે નહીં વળી જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમાં યુગપત્,ઈ ભ રક્ષણ અને શાસનના પ્રયાગ १२वा पडे मे अारनी लिक्षानी आप्ति भुनिने उदये नहीं तथा ( न वि वंदजाए, न विमाणणाए, न वि पूयणाए, न वदण माणणपूणयाणए, न वि हीलणाए न वि निंदणाए, न वि गरिहणाए, न वि हिलणा निंदणा गरिहणाए भिक्खं गवेसियव्वं ) ने लिक्षानी प्राप्ति भाटे साधुने हातानी " मापनी गुणराशि द्विमन्त સુધી વ્યાપેલ છે, મેં આપની પ્રશ'સા પહેલેથી જ સાંભળી હતી પણ આપને સાક્ષાત્કાર તા આજે જ થયેા ” એ રીતે વંધ્રુણા-પ્રશ'સા કરવી પડે એવી ભિક્ષા સાધુને કલ્પે નહીં. અહીં વદન શબ્દ પ્રશંસાના અર્થમાં વપરાયા છે. આસનાદિ આપીને દાતાનું સન્માન કરવું પડે અથવા તે રીતે તેમને પ્રસન્ન કરવા પડે તે પ્રકારની ભિક્ષા પણ સાધુને કલ્પે નહી. વળી દાતાને પેાતાની તરફથી
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર