Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० १५ अध्ययनोउपसंहारः
४९७ जिनः वीरवरनामधेयः--प्रख्यातनामा भगवान् श्रीमहावीरोऽपि ' अबंभस्स' अब्रह्मणः 'फलविवागं’ फलविपाकं ' कहेसिय' कथितवांश्च 'एयं तं' एत त्तत्-उपदर्शित स्वरूपम् ' अभं' अब्रह्म-अब्रह्मनामक ' चउत्थं ' चतुर्थमधर्मद्वारं ' सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स' सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य 'पत्थणिज्ज' प्रार्थनीयम्। एवं 'चिरपरिचिथं' चिरपरिचितम् , अनादि कालादनुभूयमानम् ' अणुगयं ' अनुगतं आणिनां पृष्टतोलग्नं, दुरन्त-दुःखावसानं च । 'त्ति बेमि' इति ब्रवीमि, एतद् जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्म खामि वाक्यम् ।। सू० १५ ॥ इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य सुदर्शन्याख्यायां व्याख्यानां हिंसादि पश्चास्त्रवद्वारेषु
अदत्तादानाख्यं चतुर्थमधर्मद्वारं समाप्तम् ॥ ३॥ (एवं ) इस प्रकार का कथन (आइंसु) भूतपूर्व तीर्थकर गणधरादिक देवों का है। और इसी प्रकार से अब्रह्म के फलविपाक उन्ही तीर्थकरों के कहे अनुसार (नायकुलनंदणो) सिद्धार्थकुलको आनंद देनेवाले (महप्पा जिणो उ ) महात्मा जिनेन्द्र (वीरवरनामधेज्जा) वीरवरनेश्री वर्धमानस्वामी ने भी (अयंभस्स) अब्रह्म के (फलविवागं) फलविपाक को (कहेसिय ) कहा है ( एवं तं) यह वह (अवंभ) अब्रह्म नाम का (चतुत्थं ) चतुर्थ अधर्मद्वार ( देवमणुयासुरस्स लोगस्स) देव मनुष्य
और असुर लोक इन सब के यह (पत्थणिज्ज) प्रार्थनीय है, अर्थात् इस अब्रह्म का ये देवादि सेवन करते हैं । ( एवं ) इस प्रकार यह (चिरपरिचियं ) जोवों के पीछे अनादिकाल से लगा हुआ चला आने के कारण (अणुगयं) अनुभूयमान है और (दुरंतं) इसका अवसान (अन्त)से दुरन्त
मा ४२४थन “ आहेसु" भूतपूर्व तीर्थ ४२ ५५॥६४ हेवार्नु छ. मने ते रात मनाना सविपार्नु ४थन ते तीर्थ ना ४ा प्रमाणे : "नायकुल. नंदणो” सिद्धार्थ ना जाने मान हेना२ “ महप्पाजिणो उ” भडामा मिनेन्द्र " वीरवरनामधेजा” पी२१२ श्री मान स्वामी ५५५ " अबंभस्स" मप्रझने। " फलविवागं" विपा " कहेसिय" उस . “ एयंतं " पाते " अबभं" समझ नामर्नु “चरत्थ” याथु अपमा२ " देवमणुयासुरस्स लोगस्स" ११. मनुष्य, मने असु२ ते मधाने ते “ पत्थणिज्ज" प्रार्थनीय छ, मेटले
महान सेवन ४२ छ. “ एव” मा शत त “चिरपरिचय " वानी ॥७१ मा uथी यायुं आवे छे. तेथी “ अणुगय" अनुभूय
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર