Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रश्नव्याकरणसूत्रे पाणिभयजनकं, 'संसारसायरं' संसारसागरं, वसन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः कीदृशं संसारसागरमित्याह-' अट्ठिय अणालंवण पइट्ठाणं' अस्थिताऽनालम्बनप्रतिष्ठानम् =अस्थितानाम् संयमानुष्ठानरहितानां न विद्यते आलम्बनम् अवलम्बः प्रतिष्ठान रक्षाकरणं यत्र स तथा तं असंयमिनामाधारवर्जितं त्राणवर्जितं चेत्यर्थः तथा 'अप्पमेयं ' अप्रमेयम् असर्वज्ञेनाऽपरिच्छेद्यं 'चुलसीयजोणिसयसहस्सगुविलं' चतुरशीतियोनिशतसहस्रगुपिलं-चतुरशीतिलक्षयोनिव्याप्तं योनिनाम संख्यातत्वेऽपि समवर्णगन्धरसस्पर्शानामेकत्वविवक्षणादुक्तसंख्यासामञ्जस्यं बोध्यं तत्र गाथा यथाऐसे ( संसारसायरं ) संसार सागर में (वसंति) वसते हैं, ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये । किस प्रकार के संसारसागर में वसते हैं सो कहते हैं-(अहि य अणालंबणपइट्टाणं) असंयमी जीवों के आलम्बन एवं रक्षा करने के साधनसे रहित (अप्पमेयं) कोल्हूका बेल चारों तरफ फिरनेसे पार नहीं पाता वैसे ही चतुर्गतिमें जन्ममरणसे पार नहीं पानेसे अप्रमेय, (चुलसीइजोणिसयसहस्सगुविलं) चौरासीलक्ष जीव योनीयों से युक्त, (अणालोगं) प्रकाशवर्जित, एवं (अंधयारं) अंधकार से युक्त इस संसार में ( अणंतकालं जाव ) अनतकाल तक (णिच्च) सदा (उत्तत्थ सुण्णभयसण्णसंपउत्ता) भयभीत बने हुए तथा किंकर्तव्यता से विमूढ हुए भय से एवं संज्ञा-आहार, परिग्रह एवं मैथुन संज्ञाओं से सम्बद्ध बने हुए जीव ( उव्विग्गवासवसहिं ) उद्विग्नों के वासस्वरूप इस संसार में (वसति) वसते हैं । जो अदत्तग्राही जीव हैं वे चतुर्गतिरूप तथा अनंत दुःखो से युक्त इस संसारसागर में अनंत काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। चौरासी लाख योनियां इस प्रकार से हैंभाट नयन, वा “संसारसायर" संसार सागरमा “वसंति" वास छरेछ. तेसो वा ४२॥ ससा२ सागरमा वसे छे ? “ अद्रिय अणालंबणपडटाणं " असयभी वान धा२ सयवान तथा तमन २६९५ ४२वाना साधनाथी २हित, “ अप्पमेयं” मसजनी अपेक्षा २५प्रमेय, “चुलसीइजोणिसयसहस्तगुविलं" यार्याशी १ योनियोथी युत, “ अणालोगं"
११ २डित, मने " अंधयारं" माथी युद्ध २॥ ससारमा “अणतकालं. जाव" अनन्त ॥ सुधी “णिच्चं” सहा " उत्तत्थसुण्णभयसण्णसंपउत्ता" ભયભીત બનેલ, તથા કિંકર્તવ્યતાથી વિમૂઢ બનેલ, ભય સંજ્ઞા, આહાર સંજ્ઞા, भैथन सज्ञा, मने परियड सशामाथी युक्त भनेर । उव्विगावोसवसहिं" दिनोना-(भीयाराना) वासवा २मा संसारभ. “वसति" से छे. महत्ताहीन લેનાર જી ચાર ગતિરૂપ તથા અનંત દુઃખોથી યુક્ત આ સંસાર સાગરમાં અનંત કાળ સુધી પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. ચર્યાશી લાખ યૂનિયે આ પ્રમાણે છે.
શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર