Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवती
परिणताः, ते जिह्वेन्द्रिय- स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणताः । ये पर्याप्तकाः द्वीन्द्रिया एवमेव । एवं यावत् चतुरिन्द्रियाः, नवरम् एकैकमिन्द्रियं वर्द्धयितव्यम्, यावत् अपर्याप्तकाः रत्नप्रभा पृथिवी नैरयिकपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः ते श्रोत्रेन्द्रियचक्षुरिन्द्रिय- घ्राणेन्द्रिय-जिहवेन्द्रिय- स्पर्शेन्द्रिय- प्रयोगपरिणताः । एवं पर्याप्तका (जे अपज्जन्ता बेइंदियपओगपरिणया ते जिभिदियफासिंदियपओगपरिणया ) जो पुद्गल अपर्याप्त बेइन्द्रियप्रयोगपरिणत होते हे, वे पुद्गल जिहा इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रियके प्रयोगसे परिणत होते हैं । (जे पज्जन्ता बेइंदिया एवं चेव ) जो पुद्गल पर्याप्त बेइन्द्रिय प्रयोगपरिणत होते हैं वे भी ऐसे ही होते हैं । ( एवं जाव asiदिया नवरं एक्केक इंदियं वड्ढेयव्वं) इसी तरहसे यावत् चौहन्द्रिय जीवों को भी जानना चाहिये । परन्तु इनमें एकएक इन्द्रियकी वृद्धि करनी चाहिये । अर्थात् तेइन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियां कहनी चाहिये और चौइन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियां कहनी चाहिये । (जाव अपज्जन्ता रयणप्पभापुढवी नेरइयपंचिंदियपओगपारणया ते सोइंदिय चक्खि दियघाणिदियजिज्भिदियफासिंदियपओगपरिणया ) यावत् जो पुद्गल अपर्याप्त रत्नप्रभा पृथिवी नारक पंचेंद्रिय प्रयोगपरिणत होते हैं वे श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिहाइन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रियके प्रयागोंसे परिणत होते हैं । ( एवं पज्जत्तगा वि) इसी ये ४ प्रमाणे समन्धुं (जे अपज्जत्ता बेइंद्रियपओगपरिणया ते जिन्भिदिय फार्सिदियपओगपरिणया) ने युगसेो अपर्याप्त द्वीन्द्रिय प्रयोगपरिणत होयछे, तेमा निडवान्द्रिय मने स्पर्शेन्द्रियना प्रयोगथी परियुत होय छे. (जे पज्जत्ता बेइंदिया एव चैत्र) गो पर्याप्त द्वीन्द्रिय प्रयोगपरित होय छे, ते पशु सेवां होय छे. ( एवं जाव चउरिदिया - नवरं एक्केक्कं इंदियं वड्यन्त्र) मे प्रभा यतुरिन्द्रय પન્તના જીવે વિષે સમજવું. પરન્તુ તેમાં એકેક ઇન્દ્રિયની વૃદ્ધિ કરવી જોઇએ. એટલે કે તેઇન્દ્રિય જીવેને સ્પર્શેન્દ્રિય, ઘ્રાણેન્દ્રિય અને રસાઇન્દ્રિય કહેવી જોઇએ અને ચતુરિન્દ્રિય જીવાને સ્પર્શે'ન્દ્રિય, રસનાઇન્દ્રિય, ઘ્રાણેન્દ્રિય અને ચક્ષુન્દ્રિય કહેવી જોઇએ. (जाव अपज्जत्ता रयणप्पभा पुढविनेरइयपंचिंदिय पओगपरिणया ते सोइंदिय, चक्खिदय, घार्णिदिय, जिब्भिदिय, फासिंदिय पओगपरिणयां) यावत् ने युद्धो અપર્યાપ્તક રત્નપ્રભા પૃથ્વીનારક પચેન્દ્રિય પ્રયાગપરિણત હાય છે, તે પુદ્ગલે શ્રોત્રેન્દ્રિય, ચક્ષુન્દ્રિય, ઘ્રાણેન્દ્રિય, જિહવાઈન્દ્રિય અને સ્પર્શેન્દ્રિયના પ્રયાગથી પરિણત હાય છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૬