Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मेयचन्द्रिका टीका श.८ उ.५ २. ३ आजीविकसिद्धांतनिरूपणम् ४९ असतीपोषणता, इत्येते शुक्ला, शुक्लाभिजात्याः मविकाः भूत्वा, कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तारो भवन्ति ॥ ० ३ ॥
टीका-अथ तद्विपरीताजीविकोपासकम्वरूपमाह-आजीवियसमयस्स गं अयमढे पण्णत्ते' इति, आजीविकसमयस्य गोशालकसिद्धान्तस्य खलु अयं वक्ष्यमाणः अर्थः प्रज्ञप्तः-'अक्खीणपडिभोइणो सव्वे सत्ता' सर्वे सत्वाः सर्वे पाणिनः अक्षीणपरिभोगिनः अक्षाणम् अक्षीणायुष्कम् अमासुकं परिभुञ्जते इति अक्षीणपरिभोगिनः सचित्ताहारिणः सन्ति, अतएव ‘से हंता, छेत्ता, असतीपोषण १५, (इचेते समणोवासगा सुका, सुक्काभिजातीया भविया, भवित्ता, कालमासे काल किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) ये श्रमणोपासक शुक्ल-पवित्र और पवित्रता प्रधान होकरके मरण समय में मरण कर किसी एक देवलोक में देवरूपसे उत्पन्न होते हैं।
टीकार्थ - ऊपर में जो ऐसा कहा गया है कि आजीवकके उपासक ऐसे नहीं होते हैं-सो इन्हीं आजीविकोपासकोंके स्वरूपको सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा प्रगट किया है- इसमें उन्होंने यह कहा है कि आजीविक- गोशालकके सिद्धान्तका वह- वक्ष्यमाण-अर्थ प्रज्ञप्त हुआ है- आजीविक सिद्धान्तका ऐसा कथन है कि 'अक्खीणपडिभोइणो सव्वे सत्ता' जितने भी प्राणी हैं वे सब अक्षीण परिभोगी हैंअर्थात-अक्षीण-अक्षीणायुष्क-अपासुकको खानेवाले हैं- सचित्ताहारी हैं। अतएव वे खाने योग्य प्राणियोंको 'हंता' लकडी आदिसे हापानिहायन, (१४) सप२, ४ भने तमापन शाषण, (१५) असतीषण, (Yखाम, ५ माहिन छेशन वेय ) ( इच्चेते समणोवासगा सुका, मुक्काभिजातीया मविया, भवित्ता, काळमासे कालं किच्चा अभयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उबवत्तारो भवंति) a श्राभरापास। शुस (पवित्र) भने पवित्रता प्रधान होय छे. તેથી તેઓ કાળનો અવસર આવે કાળધર્મ પામીને કેઈ એક દેવલોકમાં દેવરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે.
ટીકાર્ય - પહેલાના સૂત્રમાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે આજીવિકપાસક એવાં હેતા નથી. તે સંબંધને અનુલક્ષીને સૂત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા આજીવિકપાસકનું સ્વરૂપ
2 - भावि प्रायन सिala नीय प्रभा छ- 'अक्खीणपडिभोइणो सन्वे सचा' २al प्रालीमा छ, तया सक्षी परिक्षामा छ. र मास આહાર ખાનારાં છે- સચિત્તાહારી છે. તેથી તેઓ ખાવા લાયક પ્રાણીઓને “jar?
श्री. भगवती सूत्र :