Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.८ उ. ६ सृ.३ नियंन्थाराधकता निरूपणम् करेज्जा ' सच निर्ग्रन्थः संप्रस्थितः किन्तु असंप्राप्तः गन्तव्यस्थानमप्राप्तः आत्मना च स्वयमेव पूर्वमेव स्थविराचेत् कालं कुर्युः ' सेणं भंते ! किं आराहए ? विराहए ? ' हे भदन्त ! स खलु निर्ग्रन्थः किम् आराधको भवति, विराधकोवा ? भगवानाह - ' गोयमा ! आराहए, नो विराहए' हे गौतम! स निर्ग्रन्थः आराधको भवति, नो विराधकः, ३ सेय संपट्टिए असं पत्ते अपणाय पुव्वामेव कालं करेज्जा, सेणं भंते ! कि आराहए, विराहए ? ' सचागारः संप्रस्थितः किन्तु असंप्राप्तः आत्मना च स्वयमेव पूर्वमेव काल कुर्यात् स खलु हे भदन्त । किमाराधको भवति ? विराधको वा भवति ? असंपत्ते अपणाय पुव्वामेव थेराय कालं करेजा ' अब गौतम प्रभुसे ऐसा पूछते हैं - वह निर्ग्रन्थ श्रमण वहांसे प्रायश्चित्त आदि ग्रहण करनेके लिये स्थविरोंके पास चल दे - परन्तु जब तक वह उनके पास नहीं पाना है कि इतने में वे स्थविर काल कर जाय तो 'सेणं भंते ! कि राहए, विराहए' हे भदन्त ! वह श्रमण निर्ग्रन्थ आराधक होता है या विराधक होता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- ' गोयमा ' हे गौतम! वह निर्ग्रन्थ श्रमण आराहए नो विराहए" आराधक होता है, विराधक नहीं । अब गौतम स्वामी प्रभुसे ऐसा पूछते हैं कि - 'सेच संपहिए असंपत्ते, अप्पणाध पुण्वामेव काल करेज्जा, सेणं भंते ! किं आराहए, विराहए, यह निर्ग्रन्थ श्रमण वहांसे तो चल देता हैपरन्तु उन स्थविरेके पास आने से पहिले यदि उसकी मृत्यु होती हैंतो एसी हालत में वह आशयक है या विराधक है ? उत्तर में प्रभु थेराय काल करेज्जा' हे महत! ते निर्भय आयोयना यहि अश्वा निभिते ત્યાંથ! રવાના થાય, પરન્તુ તે સ્થવિરાની પાસે પહેાંચતા પહેધા સ્થવિરો કાળ કરી જાય તો से णं भंते ! कि आराहए, विराहए ? हे महन्त ! ते नियथ संयमनो આરાધક ગણાય કે વિધારક ?
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महावीर प्रभुना उत्तर :- ' गोयमा !' हे गौतम! 'आराहए नो विराहए' તે નિથને સંયમનેા આરાધક જ કહેવાય, વિરાધક કહેવાય નહીં.
गौतम स्वाभीनो प्रश्न :- ' से य संपट्टिए असंपत्ते, अप्पणा य पुत्रामेव काल करेज्जा, से णं भंते! कि आरोहए, विराहए ? ' है महन्त ! ते निर्यथ આલોચના આદિ કરવા ર્નાિમત્તે સ્થવિરેશની પાંસે જવા માટે રવાના થાય છે, પરન્તુ તેમની પાંસે પહોંચતા પહેલાં માગમાં જ કાળ કરી જાય છે, તો તેને મારાધક કહેવાય કે વિરાધક ?
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૬