Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीमत्रे भदन्त ! सामायिककृतस्य श्रमणोपाश्रये आसीनस्य कश्चित् जायां चरेत, स खलु भदन्त ! किं जायां चरति, अजायां चरति ? गौतम ! जायां चरति, नो अजायां चरति, तस्य खलु भदन्त ! तैः शीलवतगुण-विरमण-प्रत्याख्यानपौषधोपचासैः सा जाया अजाया भवति ? हन्त, अजाया भवति, तत केन पुनरर्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जायां चरति, नो अजायां चरति ? गौतम! तस्य खलु वासगस्स णं भंते! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स के जायं चरेजा, से णं भंते ! कि जायं चरइ, अजायं चरइ) हे भदन्त ! जिसने सामायिक धारण की है ऐसे श्रमणोपासक-श्रावककी जोकि उपाश्रय में बैठा हुआ है उसके स्त्री से कोइ अशिष्ट व्यवहार करता है, तो क्या वह उसकी स्त्री से अशिष्ट व्यवहार करता है या अन्य की स्त्री से अशिष्ट व्यवहार करता है ? (गोयमा) हे गौतम ! (जायं चरइ, नो अनायं चरइ) वह उसकी स्त्री से अशिष्ट व्यवहार करता है, अन्य की स्त्री से अशिष्ट व्यवहार नहीं करता है। (तस्स णं भंते ! तेहिं सीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाणपोमहोववासेहि सा जाया अजाया भवड) हे भदन्त ! उन शीलवत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास इनसे उस श्रावककी वह स्त्री अजाया-अन्य स्त्री हो जाती है क्या ? (हंता, भवइ) हां, गौतम ! वह उसकी स्त्री अस्त्री हो जाती है। (सेकेणं खाइणं अटेणं भंते ! एवं बुच्चइ, जायं चरइ,
(समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवारसए अच्छमाणस्स केइ जाय चरेज्जा, से णं भंते ! किं जाय चरइ, अनायं चरइ ?) હે ભદન્ત ! જેણે સામાયિક ધારણ કરેલી હોય અને જે ઉપાશ્રયમાં બેઠેલે હેાય એવા શ્રમણોપાસકનાં (શ્રાવકની) પત્ની સાથે કોઇ માણસ અશિષ્ટ વ્યવહાર કરે, તે શું તે માણસ તેની તિ શ્રાવકની પત્ની સાથે અશિષ્ટ વ્યવહાર કરે છે, કે અન્યની પત્ની साथे मशिष्ट व्यपहा२ ४२ ! (गोयमा) गौतम ! ( जाय चरइ, नो अजायं चरइ) ते भास तेना. ते श्रावनी] पत्नी साये मशिष्ट व्यपा२ ४२ छ, अन्यनी पत्नी साथै मशिष्ट व्य१९२ ५२ नथी. ( तम्स णं भंते ! तेहिं सीलव्वयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ) मत! તે શીલવ્રત, ગુણવ્રત, વિરમણવ્રત, પ્રત્યાખ્યાન અને પિષધપવાસથી શું તે શ્રાવકના તે પત્ની અજાયા થઈ જાય છે ખરી – પત્ની તરીકેનો સંબંધ મટી જાય છે ખરો ? (हंसा भवइ) , गौतम! नी त पत्नी माया [अपत्नी ] / लय छे. (से केणं खाइणं अटेणं मंते ! एवं बुच्चइ, जायं चरइ, नो अजायं चरइ ?)
श्री भगवती सूत्र :